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Caste System In HP

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Caste System In HP

||Caste System In HP||Caste System In Himachal Pradesh||

हि.प्र. की जातियाँ 

 (i) जाति का अर्थ-सर हरबर्ट रिज्ले के अनुसार “जाति ऐसे परिवारों या परिवार समूहों का संग्रह है, जिनका एक सामान्य नाम हो, जो स्वयं को एक ही पूर्वज के वंशज मानते हों, जो अपने पैतृक व्यवसाय को ग्रहण करते हों और अपने बजगों के विचार में एक समरूप समुदाय का निर्माण करते हों।

(ii) हि.प्र. में जाति व्यवस्था-हि.प्र. में जाति व्यवस्था शेष उत्तर भारत की जाति व्यवस्था से मिलती-जुलती है। यहाँ की जाति व्यवस्था में उच्च जातियाँ जनसंख्या की दृष्टि से बहुमत में है। इनकी जनसंख्या लगभग 55% है। शेष भारत में ऐसा कोई राज्य नहीं, जहाँ उच्च जातियों की संख्या इतनी अधिक हो। हि.प्र. में पिछड़ी जातियों की संख्या कम है, जो थोड़ी बहुत पिछड़ी जातियाँ हैं वह भी पूरे हि.प्र. में फैली हुई हैं। अनुसूचित जातियों की संख्या भी हि.प्र. में अन्य राज्यों से अधिक है। इनकी संख्या हि.प्र. में 25% है। हि.प्र. में मध्यवर्गीय जातियाँ बहुत कम हैं, यह सिर्फ 6% है। हि.प्र. की जाति व्यवस्था में शेष भारत की तरह संस्कृतिकरण का प्रभाव रहा है जिसमें निम्न जातियाँ अपने सामाजिक स्तर को उठाने का प्रयास कर रही हैं। हि.प्र. के समाज में एकीकरण और विघटन दोनों हुआ है। हि.प्र. में ब्राह्मण अलग-अलग थे, कुछ उच्च ब्राह्मण और कुछ निम्न ब्राह्मण, परन्तु अब सभी ब्राह्मण इकट्ठे हो रहे हैं। राजपूतों के साथ भी ऐसा ही हुआ है। हि.प्र. में सर्वाधिक संख्या राजपूतों की है। इनके अंतर्गत् ठाकुर, राणा, राजपूत, मियाँ, राठी, खश, गद्दी और कनैत आते हैं। वैश्यों की श्रेणी में महाजन, सूद, बनिये, कराड़ और खत्री आते हैं। अनुसूचित जाति की श्रेणी में रेहड़, डांमी, चनाल, बढ़ई, डूमण, तूरी आदि अनार्य जातियाँ आती हैं। हि.प्र. में शाँता कुमार (ब्राह्मण) को छोड़कर सभी राजपूत मुख्यमंत्री ही हुए हैं।

 

 हि.प्र. की निम्न जातियाँ 

  •  कोली-कोली परिश्रमी एवं मितव्ययी किसान हैं। इनमें से अधिकाँश खेती करते हैं और कुछ कपड़ा बुनने का काम करते हैं। प्रदेश में कुछ भागों में कोलियों को हाली अथवा सेपी कहा जाता है, चम्बा में इन्हें हाली कहा जाता है। कुल्लू क्षेत्र में कोली, दागी एवं चानाल से एक ही अर्थ लिया जाता है। शिराज, सिरमौर और शिमला में ‘कोली’ शब्द प्रचलित है, जबकि मण्डी, काँगड़ा और सिरमौर के कुछ भागों में चानाल रहते हैं। 
  • बाढ़ी-पूर्वी हिमाचल और काँगड़ा में जिसे बाढ़ी अथवा तरखान कहा जाता है वह लकड़ी के कारीगर हैं जो सभी तरह के कृषि के औजारों को ठीक करते हैं, घरेलू फर्नीचर बनाते हैं और गृह निर्माण में सहायता करते हैं। किन्नौर क्षेत्र में दमाग, तरखान और लुहार का काम करते हैं। 
  • लुहार-लुहार, लोहे का काम करते हैं। वह कृषि के औजारों को बनाते और उनकी मरम्मत करने वाले छोटी जातियों में आते हैं जिन्हें अपने काम के बदले फसल का एक निश्चित हिस्सा दिया जाता है। 
  • डूम-काँगड़ा और शिमला की निचली पहाड़ियों में रहने वाले डूमने, चम्बा में डूम कहलाते हैं। ये बाँस के कारीगर हैं। डूम सफाई आदि काम करते हुए बाँस से वस्तुएँ बनाते हैं। ये टोकरियाँ, छाज, पंखे, चटाइयाँ, चिकें, घास के रस्से-रस्सियाँ तथा बाँस से बनने वाले सभी तरह के बर्तन बनाते हैं। बिलासपुर के डूम, डूमणे, चम्बा में चनालू कहलाते हैं।
  •  ठठेरा-ठठेरा, ताँबे, पीतल तथा अन्य धातुओं के मिश्रण से बर्तन बनाता है। सेपी-चम्बा में गद्दियों के लिए जुलाहे का काम सेपी करते हैं जो कि हालियों के समकक्ष माने जाते हैं। 
  •  रेहाड़ा-रेहाड़ अथवा रेहाड़ा लोगों का डूमणों से गहरा संबंध है। डूमणों की तरह ये भी बाँस के कारीगर हैं। ये केवल काँगड़ा और की पहाड़ियों में पाए जाते हैं। शिमला की पहाड़ियों में इन्हें चरवाहा कहा जाता है परंतु ये बाँस का काम भी करते हैं। ऐसी की तरह यह भी गाने बजाने वाले और घुमक्कड़ होते हैं। गद्दी औरतों द्वारा धारण किए जाने वाले पीतल के टूम-छल्ले यहीं बनाते हैं तथा गद्दी शादियों में नाचने-गाने और बेलदारी का काम भी करते हैं। रेहाड़ा चम्बा के गद्दियों की किस्म है जो कपड़ा बनाती है। 
  •  कुम्हार-गाँव में मिट्टी के बर्तन बनाने और ईंट पकाने का काम कुम्हार करता है। वह भी गाँव की नीची जातियों में आता है जिसे काम के बदले फसल का निश्चित अंश दिया जाता था। 
  •  तूरी या ढाकी-तुरी या ढाकी यों तो किसान ही होते हैं, परन्तु इनका असली व्यवसाय संगीत और नृत्य द्वारा लोगों का मनोरंजन करना होता है। ये उसी गाँव में होते हैं जहाँ पर मंदिर स्थापित होता है। 
  •  चमांग या चमार- किन्नौर में बुनाई और जूते बनाने का काम चमांग करते हैं। चमड़ा सुखाने वाले और चमड़े का काम करने वाले व्यक्ति को चमार कहा जाता है। कुछ स्थानों पर चमड़े का काम करने के साथ-साथ खेतों में काम करने वाले को मुजारा कहा जाता है। 
  •  हेसी-स्पीति के हेसी लोग भी तुरी और ढाकी की तरह ही गायक और संगीतकार होते हैं। हिमाचल की ऊँची घाटियों में हैसी घुमक्कड़ गायक प्रसिद्ध हैं। पुरुष तासा बजाते हैं और उनकी स्त्रियाँ नाचती-गाती और डफली बजाती हैं। हेसी अथवा हैसी काँगड़ा, मण्डी और सुकेत में पाए जाते हैं।
हि.प्र. की ब्राह्मण बार जातियाँ-
पूजा करने वाले ब्राह्मण को बिलासपुर में भोजकी कहा जाता है तथा शिमला और सिरमौर में ये पजियार कहलाते हैं। कुल्लू व मण्डी में रहने वाले लोग हैं जो जादू-टोना से छुटकारा दिलाते हैं। अचारज या आचार्य ब्राह्मणों की विशेष जाति है जो मृत्यु-संस्कार करवाती है। बुजरू लोग तेलदान लेते हैं । हि.प्र. में रहने वाले ब्राह्मणों को तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है। 
  • गौड़ ब्राह्मण-गौड ब्राह्मण मुख्यतः पुजारी हैं और कृषि भी करते हैं। इनके पूर्वज अतीत में राजपूतों के साथ प्रदेश में आए थे।
  • सारस्वत और कान्य ब्राह्मण-ये प्रदेश में बसने वाले मूल ब्राह्मणों के वंशज हैं और अब गौड़ ब्राह्मणों से रोटी-बेटी का संबंध करने लगे हैं। ये कृषक ब्राह्मणों की बेटियों से भी शादी करते हैं। ये लोग जातीय नियमों के पालन में भी अधिक कठोर नहीं हैं। 
  •  कृषण ब्राह्मण-इन्हें उच्च जाति के ब्राह्मण छोटा समझते हैं। ये ब्राह्मण अच्छे किसान तो नहीं हैं परंतु पुजारी आदि का काम करने के कारण इनकी आर्थिक दशा अच्छी है।

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 हि.प्र. की मध्य एवं व्यापारिक जातियाँ-मध्य जातियों के हिन्दू बारहवीं से सत्रहवीं शताब्दी के बीच, मुस्लिम आक्रान्ताओं से बचने के लिए पहाड़ों में आ बसे। इनमें खत्री हैं जो बन्जाही, हांडा, कपूर, मल्होत्रा, सैनी आदि गोत्रों के हैं, कायस्थ कराड़, महाजन, सूद और बोहरा आदि भी हैं। ये सभी व्यापारिक जातियाँ हैं। यह छोटी-मोटी दुकानें करने के साथ-साथ पूरे प्रदेश का व्यापार सँभालते हैं। संख्या की दृष्टि से खत्री, सद और कैंथ महत्त्वपूर्ण हैं। 
 
  •  कैंथ- पहाड़ी कैंथ (कायस्थ) मैदानी कैंथों से भिन्न हैं। ये व्यापारी हैं और महाजनों के समकक्ष हैं। ये लोग भौगोलिक दृष्टि से कस्बों और बड़े शहरों में रहते हैं जहाँ रहकर व्यापार किया जा सकता है। 
  •  बोहरा-पहाड़ों में ऋण देने वाले दुकानदार को बोहरा कहा जाता है जोकि ‘व्योहार’ या ‘व्यापार’ शब्द का ही बिगड़ा रूप है। जहाँ पर बोहरे अधिक हैं वहाँ पर वनिए प्रायः नहीं हैं इससे भी स्पष्ट होता है कि बोहरे ही बनिए या महाजन हैं।
  •  महाजन- महाजन का अर्थ है ‘बड़े लोग’ परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि पहाड़ों में इस शब्द का संबंध व्यवसाय से जुड़ा है क्योंकि एक ब्राह्मण दुकानदार को भी महाजन पुकारा जाता है, जबकि एक महाजन मुंशी को कैंथ कहते हैं। 
  •  सूद-सूद, सामान्यतः काँगड़ा और उसके दक्षिण के पहाड़ों में रहते थे। काँगड़ा से यह हिमाचल के अन्य भागों में गए हैं। कुछ सूद अपनी उत्पत्ति सरहिन्द में मानते हैं। सूदों की उत्पत्ति का इतिहास बतलाता है कि अहमदशाह अब्दाली ने भारत पर सात बार हमला किया। इस लूटमार और राजनैतिक अस्थिरता से परेशान होकर कुछ परिवार सरहिन्द से हिमाचल की पहाड़ियों में आ बसे। इस प्रकार इनकी 52 उपजातियों के नाम इनके मूल गाँव के नाम पर पड़े जैसे महदूदिया, बजवाडिया आदि। पूर्व न्यायधीश टेक चंद ने अपनी पुस्तक में सूद जाति की कर्तव्य-परायणता की प्रशंसा की है। सूद, सामान्यतः व्यापारी हैं, परन्तु डॉक्टर, इंजीनियर, वकील तथा उच्च प्रशासनिक सेवाओं में भी हैं। पहाड़ी समाज में इनका सम्मानजनक स्थान है। 
  • घिरथ-घिरथ हि.प्र. की कृषक जाति है जो मुख्य काँगड़ा, ऊना, हमीरपुर और सिरमौर के मैदानी क्षेत्रों में पाई जाती है।
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 हि.प्र. की क्षत्रिय जातियाँ 
  • कनैत-कनैतों की उत्पत्ति खशों में हुई है। खश मूलतः मध्य एशिया से पश्चिमी हिमालय में प्रवेश करने वाले आर्य कबीले के लोग थे जिन्हें बाद में दक्षिण से आने वाले अप्रवासी लोगों ने भीतरी और ऊँचे पहाड़ों में धकेल दिया। कनैत खशों का एक उपवर्ग है जिन्हें संस्कृत के आचीन ग्रंथों में कुलिन्द्र कहा गया है। यह खशों से उत्पन्न एक मिश्रित जाति थी। ये भारतीय आर्यों को तिब्बतियों से अलगाने वाली जाति के 
  •  ठाकुर-ठाकुर भी कनैतों से संबंध रखते हैं। यह पूरे प्रदेश में बसे हैं और उच्च जातियों का प्रायः 50% है। यह प्रदेश की श्रेष्ठ जातियों में रूप में ऊपरी पहाड़ों में बसे हुए हैं। ये लोग कुल्लू और शिमला की पहाड़ियों में रहते हैं। कनैत कुशल किसान हैं। से एक है। यह लोग कनैत, राठी की तरह पहाड़ों के आदिम निवासी हैं। ठाकुर और राठी पहाड़ी निवासियों के रूप में ब्राह्मणों और राजपूत से पहले आकर बसे। ये उन आर्यों के वंशज है जिन्होंने सबसे पहले इन पहाड़ों में निवास बनाया अथवा आर्यों और मूलनिवासियों के संपर्क से पैदा हुए हैं। आर्यों के आगमन के समय केन्द्र में ठाकुर और राठी रहे होंगे जिनसे उनका संसर्ग हुआ। बड़े पैमाने पर राजपूतों के साथ शादियों और अन्य संबंधों से इनकी संख्या बढ़ी। कुछ क्षेत्रों में राठियों ने अपने को ठाकुर लिखना प्रारम्भ का दिया, क्योंकि पहाड़ों में दोनों पर्यायवाची हैं। सामान्य रूप से ठाकुर, राठियों से कुछ ऊँचे माने जाते हैं। 
  •  राठी-ये लोग निश्चय ही कृषक हैं और अधिकतर चम्बा और काँगड़ा क्षेत्र में रहते हैं। राठी और घिर्थ निचली पहाड़ियों और काँगड़ा में कृषि करने वाले दो प्रमुख कबीले हैं। पूर्वी हिमाचल में कनैतों का जो स्थान है वही स्थान इनका इस क्षेत्र में है। समतल और सिंचित उपजाऊ भनि जहाँ अधिक उपज होती है, वहाँ घिरथों का अधिपत्य है और ऊँची तथा कठोर परिश्रम की माँग करने वाली भूमि पर राठी खेती करते 
  • राव-राव या राओ भी कनैतों की तरह खशों से उत्पन्न हुए परन्तु अलैक्जेंडर कनिंघम के अनुसार, राओ, कनैतों की एक शाखा है। कनिघम के अनुसार ये निम्न पव्वर, रूपिन तथा टोंस घाटी के रहने वाले थे, जबकि एन्डर्सन का मानना है कि ये कुल्लू में सिराज घाटी के निवासी थे। 
  •  मियाँ-राणा राजवंशों के वंशजों को मियाँ की सम्मानजनक उपाधि से सम्बोधित किया जाता है। जब अन्य लोग इन्हें मिलते हैं तो ‘जै देवा’ का विशेष संबोधन करते हैं, जो अन्य किसी जाति के लिए नहीं किया जाता। सभी राजपूतों में मियाँ सर्वश्रेष्ठ सैनिक माने जाते हैं। एक मियाँ, किसी के अधीन मुजाने की तरह रहने की अपेक्षा निर्धनता में जीना पसन्द करता है। कहा जाता है कि मुगल सम्राट अकबर ने इन राजपूतों को सैन्य सेवाओं के बदले ‘मियाँ’ की उपाधि दी थी। 
  •  राजपूत-ये अपनी जातीय विशिष्टताओं को सुरक्षित रखते हुए भी अपने मूल निवास स्थान के नाम से ही जाने जाते रहे। इस प्रकार कटोचों में गुलेर के गुलेरिया, दातारपुर के डढ़वाल तथा जसवा के जसवाल आते हैं। सुकेत के सेनों को सुकेतिया तथा मण्डी के सेन मण्डियाला कहलाते हैं। बिलासपुर कैहलूर के चन्देल, ‘कैहलूरिया’ कहलाते हैं। जुब्बल, रविनगढ़ ओर बलसन के राजपूत राठौर कहलाते हैं। पंवर अथवा परमार और तंवर अथवा तोमर अधिकतर सोलन और सिरमौर में हैं। भट्टी राजपूत नाहन और उसके आस-पास रहते हैं। सिसोदिया, शिमला की पहाड़ियों में थरोच और डाढ़ी क्षेत्र में हैं। पठानिया राजपूत अधिकतर नूरपुर और काँगड़ा क्षेत्र में हैं। इनके अतिरिक्त डटवाल, पटियाल जरियाल, जेरियाल, जम्वाल, मिनहास, जिंदरोटिया, जसरोटिया तथा मनकोटिया आदि अन्य राजपूत हैं।
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