Educational Psychology In Hindi For HPTET

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 Educational Psychology In Hindi For HPTET 

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शिक्षा का अर्थ (Meaning of Education)

शिक्षा एक ऐसा पद है जिसका उपयोग प्राचीन काल से होता आ रहा है। प्राचीन काल में गुरु एवं शिष्य या दूसरे शब्दों में यह कहा जाए कि ज्ञानी एवं अज्ञानी के बीच ज्ञान के लेन-देन की सुव्यवस्थित प्रक्रिया को शिक्षा कहा जाता था। इस काल में गुरु को अपने शिष्यों । कुछ आवश्यक तथ्यों को कंठस्थ कराना पड़ता था और यही उनकी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाता था। इस तरह की शिक्षा देने में शिष्य की आयु, रुचि एवं योग्यता आदि पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया जाता था। शिक्षक का कर्तव्य शिष्य को मात्र सूचना दे देना होता था। स्पष्टतः इस तरह की शिक्षा बाल-केन्द्रित न होकर ज्ञान केन्द्रित थी। शिष्य चाहे बालक हो या वयस्क उसे एक ही तरह की शिक्षा दी जाती थी। इसका परिणाम यह होता था कि बालक या शिष्य का सर्वांगीण विकास नहीं हो पाता था।

                                                                                                          परन्तु, आधुनिक काल में शिक्षा का यह अर्थ पूर्णतः समाप्त हो गया है। आधुनिक काल में शिक्षा का अर्थ किसी तरह का उपदेश या सूचना देना नहीं होता है, बल्कि यह व्यक्तियों के सर्वांगीण विकास के लिए एक निरन्तर चलने वाली ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति में निहित क्षमताओं का सही-सही उपयोग विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों में किया जाता है। दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि आजकल शिक्षा से तात्पर्य व्यक्ति में निहित क्षमताओं का विकास से होता है जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति समाजोपयोगी बनता है। इस अर्थ में क्रो एवं क्रो (Crow & Crow) ने शिक्षा को परिभाषित करते हुए कहा है, “शिक्षा व्यक्तिकरण एवं समाजीकरण की वह प्रक्रिया है जो व्यक्ति की व्यक्तिगत उन्नति तथा समाजोपयोगिता को बढ़ावा देती है।” (“‘Education is an individualizing and socializing process that furthers personal advancement as well as social living.”) इसी तरह के विचार अन्य विशेषज्ञों; जैसे—स्किनर (Skinner), रिली तथा लेविस (Reilly & Lewis) द्वारा भी अपनी परिभाषाओं में व्यक्त किया गया है।

                                                                                                  स्पष्ट है कि इन वैज्ञानिकों ने शिक्षा को एक सामाजिक प्रक्रिया माना, जिसके द्वारा व्यक्ति का सर्वांगीण विकास होता है। सर्वांगीण विकास से तात्पर्य व्यक्ति के मानसिक, शारीरिक एवं आध्यात्मिक या नैतिक विकास से है। शिक्षा व्यक्ति के लिए एक ऐसा अनुकूल वातावरण तैयार कर देती है जहाँ व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक तथा नैतिक क्षमताओं का निरन्तर विकास बिना किसी तरह की रुकावट के होते रहता है। शिक्षा व्यक्ति में शारीरिक विकास कर उसे शारीरिक रूप से इस लायक बना देती है कि वह अपने वातावरण के साथ समुचित समायोजन कर सके। उसी तरह से शिक्षा व्यक्ति में मानसिक विकास करके मानसिक रूप से स्वस्थ तथा नैतिक विकास करके नैतिक रूप से स्वस्थ बनाकर उसमें समाजीकरण की प्रक्रिया को शीर्ष पर पहुँचाती है। 

स्पष्ट हुआ कि आधुनिक शिक्षा का अर्थ एवं उद्देश्य प्राचीन काल के शिक्षा के अर्थ एवं उद्देश्य से सर्वथा भिन्न है। आधुनिक समय में शिक्षा शान की लेन-देन की प्रक्रिया नहीं बल्कि बालकों या वयस्कों के चहुंमुखी विकास या सर्वांगीण विकास करने की तथा उनमें निहित विभिन्न क्षमताओं को जगाने की एक प्रक्रिया है।

 मनोविज्ञान का अर्थ एवं स्वरूप (Meaning and Nature of Psychology)

सरल शब्दों में, मनोविज्ञान मानसिक प्रक्रियाओं, अनुभवों तथा व्यक्त व अव्यक्त दोनों प्रकार के व्यवहारों का एक क्रमबद्ध तथा वैज्ञानिक अध्ययन है। ‘मनोविज्ञान’ शब्द की उत्पत्ति दो ग्रीक शब्दों ‘साइके’ तथा ‘लॉगस’ से हुई है। ग्रीक भाषा में ‘साइके’ शब्द का अर्थ है ‘आत्मा’ तथा ‘लॉगस’ का अर्थ है ‘शास्त्र’ या ‘अध्ययन’। इस प्रकार पहले समय में मनोविज्ञान को ‘आत्मा के अध्ययन’ से सम्बद्ध विषय माना जाता था। भारत में वैदिक तथा उपनिषद्काल का प्रमुख उद्देश्य चेतना का अध्ययन’ था। मानसिक प्रक्रियाओं के विभिन्न पक्षों का विश्लेषण किया गया। इसके उपरान्त योग, सांख्य, वेदान्त, न्याय, बौद्ध तथा जैन दृष्टिकोणों ने मन, मानसिक प्रक्रियाओं तथा मन के नियन्त्रण पर विस्तृत जानकारी दी। आधुनिक काल में कलकत्ता विश्वविद्यालय में 1916 में मनोविज्ञान विभाग की स्थापना की गयी थी।

        1879 में जब विलियम वुण्ट ने लिपजिग विश्वविद्यालय, जर्मनी में प्रथम मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला की स्थापना की, तब पश्चिम में मनोविज्ञान का एक आत्मनिर्भर क्षेत्र के रूप में औपचारिक आरम्भ हुआ। तब से लेकर अब तक मनोविज्ञान के विकास ने एक लम्बी यात्रा तय की है। सामाजिक विज्ञान में आज यह एक बहुत ही लोकप्रिय विषय माना जाता है। इसमें सभी प्रकार के अनुभवों, मानसिक प्रक्रियाओं तथा व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है। इन सभी पक्षों का व्यापक विश्लेषण हमें मानव प्रकृति की एक वैज्ञानिक समझ प्रदान करता है।

                                                                 आगे आने वाले अध्यायों में हम उन सभी घटकों को समझने का प्रयास करेंगे जो एक साथ मिल कर मनोविज्ञान की एक व्यापक परिभाषा प्रदान करते हैं।

1. अनुभवों का अध्ययन-मनोवैज्ञानिक कई प्रकार के मानव अनुभवों और भावनाओं का अध्ययन करते हैं, जिनकी प्रकृति मुख्यतः व्यक्तिगत होती है। ये अनुभव विभिन्न प्रकार के हो सकते हैं; जैसे–स्वप्न, जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में चेतन अनुभव, और वे अनुभव जब चेतन अवस्था के स्वरूप को ‘ध्यान’ या चेतना प्रसारी औषधियों के प्रयोग द्वारा परिवर्तित कर दिया गया हो। इस प्रकार के अनुभवों के अध्ययनों के द्वारा मनोवैज्ञानिकों को व्यक्तियों के व्यक्तिगत स्वरूप को समझने में सहायता मिलती है।

2. मानसिक प्रक्रियाओं का अध्ययन:- मानसिक प्रक्रियाओं के अध्ययन के रूप में मनोविज्ञान मस्तिष्क में हो रही उन क्रियाओं का पता लगाने का प्रयास करता है जिनका स्वरूप वस्तुतः दैहिक न हो। इन मानसिक प्रक्रियाओं में प्रत्यक्षीकरण, सीखना, याद करना तथा चिन्तन आदि सम्मिलित हैं। ये वे आन्तरिक मानसिक क्रियाएँ हैं, जिनका प्रत्यक्ष रूप से निरीक्षण नहीं किया जा सकता किन्तु व्यक्ति के व्यवहार से इनका अनुमान लगाया जा सकता है। उदाहरणतः यदि कोई व्यक्ति दी गई गणित सम्बन्धी समस्या का समाधान ढूँदने के लिये कुछ निश्चित क्रियाकलाप करता है तब हम कह सकते हैं कि वह चिंतन कर रहा है।

3. व्यवहार का अध्ययन–मनोविज्ञान के अन्तर्गत व्यवहारों के अध्ययन का क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत है। इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के व्यवहार; जैसे, साधारण प्रतिवर्त क्रियाएँ (उदाहरण के लिये, आँख झपकना), सामान्य प्रतिक्रिया संरूप, जैसे-मित्रों से बातचीत, भावनाओं व आन्तरिक स्थिति का शाब्दिक वर्णन और जटिल व्यवहार, जैसे-कम्प्यूटर पर कार्य करना, पियानो बजाना और भीड़ को सम्बोधित करना आदि, सम्मिलित हैं। ये व्यवहार या तो प्रत्यक्ष रूप से देखे जा सकते हैं या परीक्षणों द्वारा इनका मापन किया जा सकता है। जब एक व्यक्ति दी गई स्थिति में एक उद्दीपक के प्रति प्रतिक्रिया करता है, तब इस प्रकार के व्यवहार सामान्यतः शाब्दिक या अशाब्दिक (उदाहरणतः चेहरे के हाव-भाव) रूप से व्यक्त किये जाते हैं। 

इस प्रकार मनोविज्ञान में अध्ययन की प्रमुख इकाई व्यक्ति स्वयं तथा उसके अनुभव, मानसिक प्रक्रियाएँ एवं व्यवहार हैं।

Meaning and Nature of Psychology

                                           

मनोविज्ञान का विकास (Development of Psychology)

आधुनिक विद्याशाखा के रूप में मनोविज्ञान, जो पाश्चात्य विकास सेएक बड़ी सीमा तक प्रभावित है, का इतिहास बहुत छोटा है। इसका उद्भव मनोवैज्ञानिक सार्थकता के प्रश्नों से सम्बद्ध प्राचीन दर्शनशास्त्र से हुआ है। हमने उल्लेख किया है कि आधुनिक मनोविज्ञान का औपचारिक प्रारम्भ 1879 में हुआ जब विलहम वुण्ट (Wilhelm Wundy ने लिपजिग, जर्मनी में मनोविज्ञान की प्रथम प्रायोगिक प्रयोगशाला को स्थापित किया । वुण्ट सचेतन अनुभव अध्ययन में रुचि ले रहे थे और मन के अवयवों अथवा निर्माण की इकाइयों का विश्लेषण करना चाहते थे। युण्ट के समय में मनोवैज्ञानिक अंतर्निरीक्षण (Introspection) द्वारा मन की संरचना का विश्लेषण कर रहे थे इसलिए उन्हें संरचनावादी कहा गया । अंतर्निरीक्षण एक प्रक्रिया थी जिसमें प्रयोज्यों से मनोवैज्ञानिक प्रयोग में कहा गया था कि वे अपनी मानसिक प्रक्रियाओं अथवा अनुभवों का विस्तार से वर्णन करें। यद्यपि, अंतर्निरीक्षण एक विधि के रूप में अनेक मनोवैज्ञानिकों को संतुष्ट नहीं कर सका । इसे कम वैज्ञानिक माना गया क्योंकि अंतर्निरीक्षणीय विवरणों का सत्यापन बाझा प्रेक्षकों द्वारा सम्भव नहीं हो सका था। इसके कारण मनोविज्ञान में एक नया परिदृश्य उभर कर आया। 

         एक अमरीकी मनोवैज्ञानिक, विलियम जेम्स (William James) जिन्होंने कैम्ब्रिज, मसाधुसेट्स में एक प्रयोगशाला की स्थापना लिपजिग की प्रयोगशाला के कुछ ही समय बाद की थी, ने मानव मन के अध्ययन के लिए प्रकार्यवादी (Functionalist) उपागम का विकास किया। विलियम जेम्स का विश्वास था कि मानस की संरचना पर ध्यान देने के बजाय मनोविज्ञान को इस बात का अध्ययन करना चाहिए कि मन क्या करता है तथा व्यवहार लोगों को अपने वातावरण से निपटने के लिए किस प्रकार कार्य करता है। उदाहरण के लिए, प्रकार्यवादियों ने इस बात पर ध्यान केन्द्रित किया कि व्यवहार लोगों को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने योग्य कैसे बनाता है। विलियम जेम्स के अनुसार वातावरण से अंत क्रिया करने वाली मानसिक प्रक्रियाओं की एक  सतत्  के रूप में चेतना ही मनोविज्ञान का मूल स्वरूप रूपायित करती है। उस समय के एक प्रसिद्ध शैक्षिक विचारक जॉन डीवी (John Dewey) ने प्रकार्यवाद का उपयोग यह तर्क करने के लिए किया कि मानव किस प्रकार वातावरण के साथ अनुकूलन स्थापित करते हुए प्रभावोत्पादक ढंग से कार्य करता है।

                                                            बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में, एक नयी धारा जर्मनी में गेस्टाल्ट मनोविज्ञान (Gestalt Psychology) के रूप में वुण्ड के संरचनावाद (Stneturalism) के विरुद्ध आई। इसने प्रात्यक्षिक अनुभवों के संगठन को महत्वपूर्ण माना । मन के अवययों पर ध्यान न देकर गेस्टाल्टवादियों ने तर्क किया कि जब हम दुनिया को देखते हैं तो हमारा प्रात्यक्षिक अनुभव प्रत्यक्षण के अवयवों के समस्त योग से अधिक होता है। दूसरे शब्दों में, हम जो अनुभव करते हैं वह वातावरण से प्राप्त आगों से अधिक होता है। उदाहरण के लिए, जब अनेक चमकते बल्यों से प्रकाश हमारे दृष्टिपटल पर पड़ता है तो हम प्रकाश की गति का अनुभव करते हैं। जब हम कोई चलचित्र देखते हैं तो हम स्थिर चित्रों की तेज गति से चलती को अपने दृष्टिपटल पर देखते हैं। इसलिए, हमारा प्रात्यक्षिक अनुभव अपने अवयवों से अधिक होता है। अनुभव समग्रतावादी होता है यह एक गेस्टाल्ट होता है।

                                                           संरचनावाद की प्रतिक्रिया स्वरूप एक और धारा व्यवहारवाद (Behaaviourism) के रूप में आई। सन् 1910 के आसपास जॉन वाटसन (John Watsan) ने मन एवं चेतना के विचार को मनोविज्ञान के केन्द्रीय विषय के रूप में अस्वीकार कर दिया। दैहिकशास्त्री इवान पायलय (Ivan Pavlov) के प्राचीन अनुबंधन याले कार्य से बहुत प्रभावित थे। उनके लिए मन प्रेक्षणीय नहीं है और अंतर्निरीक्षण व्यक्तिपरक है क्योंकि उसका सत्यापन एक अन्य प्रेक्षक द्वारा नहीं किया जा सकता है। उनके अनुसार एक विज्ञान के रूप में मनोविज्ञान क्या प्रेक्षणीय तथा सत्यापन करने योग्य है. इसी पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। उन्होंने मनोविज्ञान को व्यवहार के अध्ययन अथवा अनुक्रियाओं (उद्दीपकों की) जिनका मापन किया जा सकता है तथा वस्तुपरक ढंग से अध्ययन किया जा सकता है, के रूप में परिभाषित किया। वाटसन के व्यवहारवाद का विकास अनेक प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिकों द्वारा आगे बढ़ाया गया जिन्हें हम व्यवहारवादी कहते हैं। इनमें सबसे प्रसिद्ध स्किनर (SkinneT) थे जिन्होंने व्यवहारवाद का अनुप्रयोग विविध प्रकार की परिस्थितियों में किया तथा इस उपागम को प्रसिद्धि दिलाई। वाटसन के बाद यद्यपि व्यवहारवाद मनोविज्ञान में कई दशकों तक छाया रहा परन्तु उसी समय मनोविज्ञान के विषय में एवं उसकी विषयवस्तु के विषय में कई अन्य विचार एवं उपागम विकसित हो रहे थे। एक व्यक्ति जिसने मानव स्वभाव के विषय में अपने मौलिक विचार से पूरी दुनिया को झंकृत कर दिया वे सिगमंड फ्रायड (Sigmund Freud) थे। फ्रायड ने मानव व्यवहार को अचेतन इच्छाओं एवं द्वन्द्वों का गतिशील प्रदर्शन बताया। मनोवैज्ञानिक विकारों को समझने एवं उन्हें ठीक करने के लिए उन्होंने मनोविश्लेषण (Psycho-analysis) को एक पद्धति के रूप में स्थापित किया।

शिक्षा-मनोविज्ञान का अर्थ (Meaning of Educational Psychology)

शिक्षा मनोविज्ञान, मनोविज्ञान के सिद्धान्तों का शिक्षा के क्षेत्र में प्रयोग है। स्किनर के शब्दों में-“शिक्षा-मनोविज्ञान उन खोजों का शैक्षिक परिस्थितियों में प्रयोग करता है जो कि विशेषतया मानव प्राणियों के अनुभव और व्यवहार से सम्बन्धित है।

शिक्षा मनोविज्ञान दो शब्दों के योग से बना है-‘शिक्षा’ और ‘मनोविज्ञान’। अत: इसका शाब्दिक अर्थ है-शिक्षा सम्बन्धी मनोविज्ञान’।

दूसरे शब्दों में, यह मनोविज्ञान का व्यावहारिक रूप है और शिक्षा की प्रक्रिया में मानव-व्यवहार का अध्ययन करने वाला विज्ञान है। अत: हम स्किनर के शब्दों में कह सकते हैं-‘शिक्षा मनोविज्ञान अपना अर्थ शिक्षा से, जो सामाजिक प्रक्रिया है और मनोविज्ञान से, जो व्यवहार सम्बन्धी विज्ञान है, ग्रहण करता है।

“Educational psychology takes its meaning from education, a social process and from psychology, a behavioural science.” -Skinner

शिक्षा मनोविज्ञान के अर्थ का विश्लेषण करने के लिए स्किनर (Skinner) ने निम्नलिखित तथ्यों की ओर संकेत किया है

1. शिक्षा मनोविज्ञान का केन्द्र, मानव-व्यवहार है।

2. शिक्षा मनोविज्ञान, खोज और निरीक्षण से प्राप्त किए गए तथ्यों का संग्रह है।

3. शिक्षा मनोविज्ञान में संग्रहीत ज्ञान को सिद्धान्तों का रूप प्रदान किया जा सकता है।

4. शिक्षा मनोविज्ञान ने शिक्षा की समस्याओं का समाधान करने के लिए अपनी स्वयं की पद्धतियों का प्रतिपादन किया है।

5. शिक्षा मनोविज्ञान के सिद्धान्त और पद्धतियाँ शैक्षिक सिद्धान्तों और प्रयोगों को आधार प्रदान करते हैं।

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शिक्षा मनोविज्ञान की परिभाषाएँ (Definitions of Educational Psychology)

शिक्षा-मनोविज्ञान मनोविज्ञान के सिद्धान्तों का शिक्षा में प्रयोग ही नहीं करता अपितु शिक्षा की समस्याओं को हल करने में योग देता है। इसलिये शिक्षाविदों ने शिक्षा की समस्याओं के अध्ययन, विश्लेषण, विवेचन तथा समाधान के लिये इसकी परिभाषायें इस प्रकार दी हैं

स्किनर- शिक्षा मनोविज्ञान के अन्तर्गत शिक्षा से सम्बन्धित सम्पूर्ण व्यवहार और व्यक्तित्व आ जाता है।

“Educational psychology covers the entire ranges of behaviour and personality as related to education.” “-Skinner

क्रो व क्रो-“शिक्षा मनोविज्ञान, व्यक्ति के जन्म से वृद्धावस्था तक सीखने के अनुभवों का वर्णन और व्याख्या करता है।

Educational psychology describes and explains the learning experiences of an individual from birth through old age.”-Crow and Crow

नॉल व अन्य-“शिक्षा मनोविज्ञान मुख्य रूप से शिक्षा की सामाजिक प्रक्रिया से परिवर्तित या निर्देशित होने वाले मानव-व्यवहार के अध्ययन से सम्बन्धित है

“Educational psychology is concerned primarily with the study of human behaviour as it is changed or directed under the social process of education.” –Noll and Others: Jowwal of Educational Psychology, ,1948

शिक्षा-मनोविज्ञान की प्रकृति एवं विशेषताएँ (Nature and Characteristics of Educational Psychology)

सर्वमान्य रूप से शिक्षा मनोविज्ञान को शिक्षा का विज्ञान कहा गया है। निम्न तथ्यों की प्रस्तुति से यह स्पष्ट किया जा सकता है कि इसकी प्रकृतिविज्ञानमय है

1. शिक्षा मनोविज्ञान, मनोविज्ञान की व्यावहारिक शाखाओं में से एक है। मनोविज्ञान के सिद्धान्त, नियम एवं विधियों का प्रयोग करके यह विद्यार्थियों के अनुभवों और व्यवहार का अध्ययन करने में सहायक होता है।

2. मनोविज्ञान में जीवधारियों के जीवन की समस्त क्रियाओं से सम्बन्धित व्यवहार का अध्ययन होता है जबकि शिक्षा मनोविज्ञान शैक्षणिक पृष्ठभूमि में विद्यार्थी के व्यवहार का अध्ययन करने तक ही अपने आपको सीमित रखता है।

3. शिक्षा मनोविज्ञान शिक्षा क्यों और शिक्षा क्या’ जैसे प्रश्नों का उत्तर देने में अपने आपको असमर्थ पाता है। ये प्रश्न शिक्षा दर्शन द्वारा सुलझाए जाते हैं। शिक्षा मनोविज्ञान तो विद्यार्थियों को संतोषजनक ढंग से उचित शिक्षा देने के लिए उचित जानकारी, कौशल और तकनीकी परामर्श देने का प्रयत्न करता है।

4. शिक्षा मनोविज्ञान की गिनती कलात्मक विषयों में की जाती है। इस मान्यता के पीछे इसकी प्रकृति और इसका स्वरूप ही है जो सभी तरह से विज्ञानमय ही नजर आता है। वैज्ञानिक पद्धति से प्राप्त ज्ञान में निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं

(i) वस्तुनिष्ठता एवं तथ्यात्मक ज्ञान-लेस्ट्रली के अनुसार-विज्ञान एक वस्तुनिष्ठ, तार्किक एवं व्यवस्थित अध्ययन पद्धति है। शिक्षामनोविज्ञान के अन्तर्गत किए जाने वाले अध्ययन वस्तुनिष्ठ तथा तथ्यात्मकता से आपूरित होते हैं। तथ्यों का सतर्कतापूर्वक सम्यक संकलन और विभाजन किया जाता है। अध्ययनकर्ता अपने अध्ययन में व्यक्तिगत भावनाओं व पूर्वाग्रहों को नहीं आने देता।

(ii) निरीक्षण, परीक्षण एवं प्रयोग-शिक्षा मनोविज्ञान के अध्ययन का दृष्टिकोण अथवा परिप्रेक्ष्य वैज्ञानिक होता है। इसमें निष्पक्ष और व्यवस्थित निरीक्षण किया जाता है। निरीक्षण, परीक्षण और प्रयोग पर आधारित निष्कर्षों को मान्यता प्राप्त होती है। प्रयोगात्मक विधि इसका सर्वश्रेष्ठ परिलक्षण होता है जहाँ नियन्त्रित दशाओं में प्रयोग कर निरीक्षण किया जाता है और निष्कर्ष निकाला जाता है।

उदाहरणार्थ-व्यक्तित्व या अधिगम के क्षेत्र में निरीक्षण, परीक्षण और प्रयोग के द्वारा अनेक नियमों और सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया।

(iii) कार्य-कारण सम्बन्ध-वैज्ञानिक अध्ययन में कार्य तथा कारण का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध होता है। शिक्षा मनोविज्ञान के अध्ययन में कार्य कारण सम्बन्धों पर विशेष महत्व दिया जाता है। किसी भी घटना के क्या कारण हो सकते है, यह निरीक्षित किया जाता है। जैसे-जिस अध्यापक में सम्प्रेषण क्षमता की कमी होती है, उसकी कक्षा में शोर अधिक होता है। यदि अध्यापन विधि विद्यार्थियों की रुचि के अनुसार नहीं होती है तो अधिगम का स्तर निम्न होता है।

(iv) सामान्यीकरण या सार्वभौमिकता-विज्ञान में विभिन्न शाओं के सम्बन्ध में प्राप्त निष्कर्षों का सामान्यीकरण और सार्वभौमिकता अनिवार्य होता है। शिक्षा मनोविज्ञान में प्राप्त की गई एकरूपता के आधार पर कतिपय निष्कर्षों का प्रतिपादन किया जाता है तथा उन निष्कर्षों के आधार पर सामान्यीकरण निकाले जा सकते हैं। शिक्षा मनोविज्ञान, मानव व्यवहार का अध्ययन करता है। मानव व्यवहार के अध्ययनों से प्राप्त निष्कर्षों का सामान्यीकरण करने में विशेष जागरूकता की आवश्यकता होती है क्योंकि मानव व्यवहार में बड़ी अनिश्चितता होती है, जो विभिन्न कारकों से प्रभावित और परिवर्तित होता है, जैसे-स्थान, परिवेश, समय, थकान, साथी आदि ।

(v) सत्यापनशीलता-शिक्षा मनोविज्ञान के परीक्षणों से प्राप्त निष्कर्षा को पुनः परीक्षण के द्वारा सत्यापित किया जा सकता है। यदि आन्तरिक और बाह्य परिस्थितियाँ अपरिवर्तित हैं तो किसी विद्यार्थी का दो बार मापन करने पर समान परिणाम व अंक प्राप्त होंगे।

उदाहरणार्थ-‘बुद्धि सृजनात्मकता को प्रभावित करती है। इस सिद्धान्त का सत्यापन किया जा सकता है।

शिक्षा मनोविज्ञान के उद्देश्य (Objectives of Educational Psychology)

स्किनर (Skinner) के अनुसार-स्किनर ने शिक्षा मनोविज्ञान के उद्देश्यों को दो भागों में विभाजित किया है-

1. सामान्य उद्देश्य,

 2. विशिष्ट उद्देश्य ।

1. सामान्य उद्देश्य (General Aims)-स्किनर ने शिक्षा मनोविज्ञान का सामान्य उद्देश्य केवल एक मानते हुए लिखा है- शिक्षा मनोविज्ञान का सामान्य उद्देश्य है-संगठित तथ्यों और सामान्य नियमों का एक ऐसा संग्रह प्रदान करना, जिसकी सहायता से शिक्षक सांस्कृतिक और व्यावसायिक लक्ष्यों को अधिक-से-अधिक प्राप्त कर सके।

“The general aim of educational psychology is to provide a body of organized facts and generalizations that will enable the teacher to realize increasingly both cultural and professional objectives.” -Skinner

शिक्षा-मनोविज्ञान के सामान्य उद्देश्य इस प्रकार हैं

1. सिद्धान्तों की खोज तथा तथ्यों का संग्रह।

2. बालक के व्यक्तित्व का विकास।

3. शिक्षण कार्य में सहायता प्रदान करना।

4. शिक्षण विधि में सुधार।

5. शिक्षा उद्देश्यों एवं लक्ष्यों की पूर्ति ।

2. विशिष्ट उद्देश्य (Specific Aims)-शिक्षा मनोविज्ञान, केवल व्यक्ति के सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति ही नहीं करता, अपितु वह उसके विशिष्ट लक्ष्यों की पूर्ति में भी सहायक होता है। यह व्यक्ति को उसकी योग्यता, क्षमता तथा कुशलता को पहचानने में योग देता है। शिक्षक, छात्रों की सीखने की सीमाओं को पहचानता है। स्किनर ने शिक्षा मनोविज्ञान के 8 विशिष्ट उद्देश्य बताये हैं-

(1) बालकों की बुद्धि, ज्ञान और व्यवहार में उन्नति किए जाने के विश्वास को दृढ़ बनाना,

 (2) बालकों के प्रति निष्पक्ष और सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण का विकास करने में सहायता देना, 

(3) बालकों के वांछनीय व्यवहार के अनुरूप शिक्षा के स्तरों और उद्देश्यों को निश्चित करने में सहायता देना, 

(4) सामाजिक सम्बन्धों के स्वरुप और महत्व को अधिक अच्छी प्रकार समझने में सहायता देना,

(5) शिक्षण की समस्याओं का समाधान करने के लिए प्रयोग किए जाने वाले तथ्यों और सिद्धान्तों का ज्ञान प्रदान करना. 

(6) शिक्षक को अपने और दूसरों से शिक्षण के परिणामों को जताने में सहायता देना, ( शिक्षक को छात्रों के व्यवहार की व्याख्या करने के लिए आवश्यक तथ्य और सिद्धान्त प्रदान करना,

 (8) प्रगतिशील शिक्षण-विधियों, निर्दशन-कार्यक्रमों एवं विद्यालय-संगठन और प्रशासन के स्वरूपों को निश्चित करने में सहायता देना।

शिक्षा मनोविज्ञान का अर्थ अपने में स्पष्ट है। शिक्षा में मनोविज्ञान का प्रयोग ही शिक्षा मनोविज्ञान है। शिक्षा मनोविज्ञान विद्यार्थी तथा सीखने की क्रियाओं के मध्य शिक्षक तथा छात्र का व्यवहार है। शिक्षा मनोविज्ञान शिक्षा से अर्थ ग्रहण करता है, मनोविज्ञान से सामाजिक प्रक्रिया ग्रहण करता है और बालक में वांछित व्यवहार परिवर्तन द्वारा उसे सर्वांगस्वरूप प्रदान करता है। शिक्षा मनोविज्ञान का सम्बन्ध मानवीय क्रियाओं से है. इसलिये i) यह  मानव व्यवहार पर केन्द्रित है. (ii) निरीक्षण तथा खोज द्वारा प्राप्त तथ्यों तथा सूचनाओं का भण्डार है, (iii) इस ज्ञान भण्डार से नियम तथा सिद्धान्तों का निरूपण होता है, (iv) यह ज्ञान की खोज की एक पद्धति है, (v) इससे शिक्षा की समस्याओं का समाधान होता है, (vi) समस्त प्राप्त ज्ञान, नियम तथा सिद्धान्त शैक्षिक व्यवहार को आधार प्रदान करते हैं।

शिक्षा मनोविज्ञान एक व्यावसायिक विषय के रूप में विकसित हुआ है। शिक्षक बनने वाले व्यक्ति के व्यवहार में भी परिवर्तन की आवश्यकता है, अतः शिक्षा मनोविज्ञान का अध्ययन नवशिक्षक के लिये अपरिहार्य है। कुल मिलाकर शिक्षा मनोविज्ञान अपने अर्थ, प्रकृति तथा क्षेत्र में स्पष्ट है और इसका उद्देश्य मंगलकारी है। यह एक ओर शिक्षा की प्रक्रिया के नियोजन में दिशा-निर्देश करता है तो दूसरी ओर कक्षागत परिस्थितियों में आनुभविक आधार प्रदान कर नई पीढ़ी के नवनिर्माण में योग देता है।

शिक्षा-मनोविज्ञान का क्षेत्र( (Scope of Educational Psychology)

किसी विषय के क्षेत्र से तात्पर्य अध्ययन की उस सीमा से होता है जिस सीमा तक उस विषय के अन्तर्गत अध्ययन किया जा सकता है और विषय सामग्री से तात्पर्य उस सीमा से होता है जिस तक उसके क्षेत्र में अध्ययन किया जा चुका होता है। शिक्षा मनोविज्ञान में मनुष्य की अभिवृद्धि, विकास एवं अधिगम सम्बन्धी सिद्धान्तों एवं नियमों और उसकी शारीरिक एवं मानसिक योग्यताओं एवं क्षमताओं के स्वरूप तथा उनकी मापन विधियों का अध्ययन किया जाता है तथा मनुष्य की शिक्षा के क्षेत्र में उनका अनुप्रयोग कर उसकी शिक्षा को प्रभावशाली बनाने की विधियाँ स्पष्ट की जाती हैं। यही इसका क्षेत्र है और इसी क्षेत्र से सम्बन्धित इसकी विषय सामग्री है। इसके अध्ययन क्षेत्र एवं विषय-वस्तु को निम्नलिखित रूप से अभिव्यक्त की जा सकती है

1. अभिवृद्धि एवं विकास (Growth and Development)-शिक्षा मनोविज्ञान में मनुष्य की शारीरिक अभिवृद्धि और शारीरिक, मानसिक भाषायी, संवेगात्मक एवं सामाजिक विकास का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है। इसमें मानव अभिवृद्धि तथा विकास का अध्ययन चार कालोंशैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था और प्रौदावस्था के क्रम में किया जाता है। इसमें मनुष्य के विकास में उसके वंशानुक्रम और पर्यावरण की भूमिका का अध्ययन भी किया जाता है।

2. मानसिक योग्यताएँ और उनका मापन (Mental Abilities and their Measurement)-शिक्षा मनोविज्ञान में मनुष्य के याह्य एवं आन्तरिक, दोनों के प्रकार के व्यवहार का अध्ययन किया जाता है और इन दोनों प्रकार के व्यवहार के कारक, प्रेरक एवं नियंत्रक तत्वों का अध्ययन किया जाता है। इन तत्वों में उसकी मानसिक योग्यताओं (बुद्धि, अभिक्षमता, चिन्तन एवं तर्क आदि) का बड़ा महत्व होता है। शिक्षा मनोविज्ञान में मनुष्य की मानसिक योग्यताओं और उनके मापन की विधियों का अध्ययन वैज्ञानिक ढंग से किया जाता है।

3. मानसिक स्वास्थ्य एवं समायोजन (Mental Health and Adjustment)-मनोविज्ञान ने स्पष्ट किया कि बच्चों की शिक्षा एवं विकास में बच्चों एवं अध्यापकों के मानसिक स्वास्थ्य एवं उनकी समायोजन क्षमता की अहम् भूमिका होती है। शिक्षा मनोविज्ञान में बालों और अध्यापकों के मानसिक विकास में बाधक एवं साधक तत्वों का अध्ययन किया जाता है और साथ ही कुसमायोजन के कारणों और सुसमायोजन की विधियों का अध्ययन किया जाता है।

4. व्यक्तिगत विभिन्नता (Individual Differences)-शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से कोई दो बालक समान नहीं होते । ऐसा क्यों होता है और इसका शिक्षा प्रक्रिया में क्या महत्व है, इस सबका अध्ययन भी इसके क्षेत्र में आता है।

5. विशिष्ट बालक (Exceptikonal Children)-प्रारम्भ में शिक्षा मनोविज्ञान में केवल सामान्य बालकों का ही अध्ययन किया जाता था। परन्तु अब इसमें विशिष्ट या अपवादी बालकों का भी अध्ययन किया जाता है, जैसे-मेधावी, पिछड़े, विकलांग, अपराधी आदि। उनके व्यवहारों को नियंत्रित करने एवं उनकी शिक्षा के लिए विशिष्ट शिक्षण विधियों का विकास भी किया जाता है। आज यह सब भी उसके अध्ययन क्षेत्र में आता है।

6. समूह मनोविज्ञान (Group Psychology)-अब किसी भी देश में बालकों को समूह रूप में पढ़ाया जाता है। शिक्षा मनोविज्ञान में व्यष्टि के अध्ययन के साथ उसके समूह का अध्ययन भी किया जाता है, उनके समूह मन और सामूहिक क्रियाओं का अध्ययन भी किया जाता है और समूह में व्यक्ति का व्यवहार क्यों बदल जाता है और कैसे बदलता है, इस सबका अध्ययन भी किया जाता है।

7. सीखना (Learming)-शिक्षा-मनोविज्ञान में सीखने के स्वरूप, उसके कारक, प्रेरक एवं नियंत्रक तत्वों, सिद्धान्तों और नियमों का अध्ययन किया जाता है और वैज्ञानिक ढंग से किया जाता है और इसके आधार पर शिक्षण के सिद्धान्त एवं नियमों की खोज की जाती है। विभिन्न स्तर के बालकों के लिए विभिन्न शिक्षण विधियों का निर्माण किया जाता है।

शिक्षा मनोविज्ञान की विधियाँ (Methods of Educational Psychology)

शिक्षा मनोविज्ञान की विधियाँ निम्नलिखित है1.आत्मनिरीक्षण या अन्तर्दर्शन विधि (Introspection Method) इस विधि का प्रतिपादन संरचनावादी मनोवैज्ञानिकों द्वारा किया गया। यह मनोविज्ञान की परम्परागत विधि है। जब आत्मा के विज्ञान के रूप में मनोविज्ञान की मान्यता समाप्त हो गयी तब विलियम उण्ट (William Wundt), टिचनर (Titchner), विलियम जेम्स (William James) आदि मनोवैज्ञानिकों द्वारा चेतन अनुभूति का अध्ययन करने वाले विज्ञान को मनोविज्ञान कहा गया तथा इस विधि को अन्तदर्शन विधि कहा गया। इस विधि में व्यक्ति स्वयं अपनी क्रियाओं का निरीक्षण करता है। 

अन्तर्दर्शन (Introspection) का अर्थ है-“To look within’ अर्थात्स्व यं के अन्दर देखना। अर्थात् अन्तर्निरीक्षण विधि में व्यक्ति स्वयं अपने अन्दर झाँकता है तथा अपनी मनोदशा का स्वयं अध्ययन या निरीक्षण करता है। स्टाउट (Stault) के अनुसार, “अपनी मानसिक क्रियाओं का क्रमबद्ध अध्ययन ही अन्तर्दर्शन कहलाता है। जैसे किसी भी कविता या कहानी को पढ़ने के बाद उसके सम्बन्ध में प्रतिक्रिया देना कि वह कैसी लगी ? अन्तर्वर्शन विधि के द्वारा ही हम अपनी मनोदशा के अनुभव को बता पाते हैं। 

गुण

(i) इस विधि के माध्यम से व्यक्ति की मनोदशा के विषय में शीघ्र जानकारी मिलती है। कक्षा में शिक्षक द्वारा पढ़ाये गये प्रकरण, छात्रों पर उनका प्रभाव, कक्षा के वातावरण का प्रभाव आदि बातों का इस विधि के द्वारा शीघ ज्ञान प्राप्त हो जाता है।

 (ii) मनोविज्ञान के ज्ञान में इस विधि के प्रयोग से वृद्धि होती है।

(iii) अन्तर्निरीक्षण विधि का प्रयोग अत्यन्त सरल है। इसका किसी भी समय किसी भी स्थान पर और किसी भी परिस्थिति में शिक्षक व शिक्षार्थी की मनोदशा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रयोग किया जा सकता है।

दोष

(i) इस विधि में वैज्ञानिकता का अभाव पाया जाता है। इसके द्वारा प्राप्त निष्कर्षों की जाँथ अन्य लोगों द्वारा नहीं की जा सकती है। यह एक आत्मनिष्ठ विधि है।

(ii) इस विधि में एक साथ आत्म-निरीक्षण तथा स्वयं की मानसिक प्रक्रियाओं का अध्ययन दोनों करना पड़ता है जिस कारण व्यक्ति का ध्यान दो भागों में बँट जाता है। फलस्वरूप व्यक्ति द्वारा किया गया निरीक्षण दोषपूर्ण हो जाता है।

2.गाथा वर्णन विधि(Anecdotal Method)

मनोविज्ञान में व्यक्ति अध्ययन की यह एक प्राचीन विधि है। इस विधि में मनोवैज्ञानिक व्यक्ति को अपने पूर्व अनुभवों का वर्णन करने को कहता है, जिसे सुनकर वह उसका रिकॉर्ड तैयार करता है। तत्पश्चात् मनोवैज्ञानिक उस रिकॉर्ड का अध्ययन कर व्यक्ति के सम्बन्ध में निष्कर्ष निकालता है। यह विधि एक आत्मनिष्ठ विधि है जो पूर्ण रूप से व्यक्ति के अनुभवों पर आधारित होती है।

गाथा वर्णन विधि को भी मनोवैज्ञानिकों ने एक पूर्ण विधि नहीं माना है क्योंकि यह व्यक्ति के अनुभवों पर ही आधारित है और व्यक्ति कई बार पूर्व अनुभवों को ठीक-ठीक पुन स्मरण नहीं कर पाते जिस कारण वह अपनी तरफ से कुछ जोड़-तोड़ कर नयी कहानी बना लेता है अतः स्किनर आदि मनोवैज्ञानिक इसे एक अमनोवैज्ञानिक विधि मानते हैं। अतः एक पूर्ण विधि के रूप में इसका प्रयोग न करके एक सहायक विधि के रूप में प्रयोग किया जाता है।

3. प्रयोगात्मक विधि (Experimental Method)

प्रयोगात्मक विधि एक वैज्ञानिक विधि है जिसमें प्रयोगकर्ता छात्रों के व्यवहारों का नियंत्रित वातावरण में अध्ययन करता है। प्रयोगात्मक विधि में परीक्षण के लिए कोई समस्या ले ली जाती है। उनका प्रयोगशाला परिस्थिति में निरीक्षण किया जाता है। वे तथ्य या सामग्री जो परीक्षण में बाधा डालती हो उन्हें प्रयोगशाला से बाहर रोक दिया जाता है जिससे वातावरण प्रयोगकर्ता के पूर्ण नियन्त्रण में हो जाता है। इस प्रकार नियन्त्रित परिस्थिति में व्यक्ति की मानसिक क्रियाओं जैसे-प्रत्यक्षीकरण, स्मृति, चिन्तन, विचार, अवधान, कल्पना, संवेग, संवेदना आदि का नियन्त्रित वातावरण में अध्ययन किया जाता है। यहाँ नियन्त्रित परिस्थिति से अभिप्राय है स्वतन्त्र चर में खुलकर जोड़-तोड़ किया जा सके तथा साथ ही अन्य सभी वे घर जिनका प्रभाव आश्रित चर पर पड़ता हो वे भी प्रयोगकर्ता के नियन्त्रण में हों। प्रयोगात्मक विधि को स्पष्ट करते हुए क्रो एवं क्रो (Crow and Crow) ने लिखा है कि, ‘मनोवैज्ञानिक प्रयोग का उद्देश्य किसी निश्चित परिस्थिति या दशा में मानव व्यवहार से सम्बन्धित किसी विश्वास या विचार का परीक्षण करना है।

इस प्रकार प्रयोगात्मक विधि में नियन्त्रित वातावरण में किसी व्यक्ति के व्यवहार का अध्ययन करके तथ्य एकत्रित किया जाता है।

 गुण

(i) प्रयोगात्मक विधि एक वैज्ञानिक विधि है।

(ii) इस विधि में व्यक्ति की क्रियाओं का अध्ययन नियंत्रित परिस्थिति में किया जाता है। अतः इससे प्राप्त निष्कर्ष अधिक विश्वसनीय होते हैं।

(iii) प्रयोगात्मक विधि एक वस्तुनिष्ठ विधि होती है। इससे प्राप्त निष्कर्षों की पुनः जाँच करना सम्भव हो पाता है।

दोष

(i) इस विधि से प्राप्त निष्कर्षों में कृत्रिमता का गुण पाया जाता है। कितनी भी सावधानी रखने पर नियंत्रित परिस्थिति में व्यक्ति के व्यवहार में कृत्रिमता आ ही जाती है।

(ii) प्रत्येक परिस्थिति में नियंत्रित वातावरण का निर्माण सम्भव नहीं होता जैसे-क्रोध, भय आदि।

4. वस्तुनिष्ठ निरीक्षण विधि (Objective Observation Method)

व्यक्ति/बालक के व्यवहार का सूक्ष्म निरीक्षण करके उसकी मानसिक दशा का अनुमान लगाना ही वस्तुनिष्ठ निरीक्षण/अवलोकन विधि है। इसमें परीक्षक अपने विषयी का अध्ययन करने में अपने पूर्वानुभव का लाभ उयता है और बालक की मानसिक परिस्थिति का अनुमान लगा पाता है। इसमें सर्वप्रथम व्यक्ति के व्यवहार का निरीक्षण किया जाता है तत्पश्चात्उ सके व्यवहार का अनुभव किया जाता है और अन्त में अनुभव के आधार पर उसके व्यवहार की व्याख्या की जाती है। कॉलसनिक के अनुसार अवलोकन विधि दो प्रकार की होती है

(i) औपचारिक निरीक्षण-औपचारिक निरीक्षण में व्यक्ति के व्यवहार का निरीक्षण नियंत्रित दशाओं में किया जाता है।

(ii) अनौपचारिक निरीक्षण-अनौपचारिक निरीक्षण में अनियंत्रित परिस्थिति में व्यक्ति के व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है। इसमें कक्षा में तथा कक्षा के बाहर छात्रों का अवलोकन किया जाता है तथा उसके आधार पर निष्कर्ष निकाला जाता है। यह विधि शिक्षकों के लिए उपयोगी मानी गयी है। इसमें कोई पूर्व निर्धारित योजना नहीं होती है। समय व आवश्यकतानुसार निरीक्षण कार्य किया जाता है।

गुण

(i) बाल अध्ययन में यह विधि अधिक उपयोगी होती है।

(ii) इसके अवलोकन के आधार पर अध्यापक छात्र के व्यवहार में परिवर्तन करा सकते हैं तथा उन्हें उचित दिशा प्रदान कर सकते हैं।

(iii) इसके द्वारा शिक्षक अपनी शिक्षण विधि, पाठ्यक्रम आदि में संशोधन कर सकते हैं।

दोष

(i) यह विधि आत्मनिष्ठ होती है। इसमें प्रयोगकर्ता के निरीक्षण पर ही परिणाम आधारित होता है।

(ii) प्रयोज्य को परीक्षण का जब पता लग जाता है तो उसका व्यवहार बनावटी हो जाता है। अतः परिणाम की विश्वसनीयता घट जाती है।

5. मनोविश्लेषण विधि (Psycho-Analytical Method)

इस विधि के जन्मदाता सिंगमण्ड फ्रायड (Singneond Freud) नामक मनोवैज्ञानिक हैं। इस विधि में बालक के अचेतन मन का अध्ययन करके उसका उपचार किया जाता है। फ्रायड ने मन को दो भागों में बाँटा है-चेतन तथा अचेतन । फ्रायड का विचार है कि व्यक्ति के व्यवहार पर उसके अचेतन मन का भी काफी प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति की बहुत-सी दमित इच्छाएँ जिसे यह लोक-लाज तथा समाज के भय से पूरा नहीं कर पाता, वह उसके अचेतन मन में जाकर संग्रहीत हो जाती हैं जहाँ वह सतत् क्रियाशील रहती हैं। जब भी कभी उन्हें प्रकट होने का मौका मिलता है तो वे प्रकट होने का प्रयास करती हैं। अतः व्यक्ति अनुचित व असामाजिक व्यवहार कर बैठता है। मनोविश्लेषक व्यक्ति के व्यवहार की तह में जाकर उसके व्यवहार का विश्लेषण स्वप्न विश्लेषण (Dream Analysis), शब्द साहचर्य (Word Association), स्वतन्त्र साहचर्य (Free Association), सम्मोहन (Hypnotism) आदि विधियों की सहायता से करता है। तत्पश्चात् उसका कारण जान लेने पर उसका निदान बूँदा जाता है।

गुण

(i) व्यक्ति की मानसिक स्थिति का ज्ञान प्राप्त करने की यह सर्वोत्तम विधि है।

(ii) इस विधि द्वारा उसके मन में छिपी भावनाओं को बाहर निकलवाने का प्रयास किया जाता है।

(iii) इस विधि द्वारा व्यक्ति की उन दमित इच्छाओं का पता लगाया जाता है जो उसके मस्तिष्क में गाँठ बनकर मनोरोगों का कारण बनती है, तथा इससे तनाव को कम किया जा सकता है।

दोष

(1) इस विधि का प्रयोग काफी सावधानी से किया जाना चाहिए। वुडवर्थ (Woodworis) का कहना है कि“मनोविश्लेषण विधि के प्रयोग में सावधानी अति आवश्यक है। चूंकि इस विधि में काफी समय लगता है अतः इसे उसी स्थिति में प्रयुक्त करना चाहिए जब रोगी अन्त तक सहयोग देने को तैयार हो। अगर रोगी उपचार को पूरा नहीं कर पाता अर्थात् बीच में ही छोड़ देता है, तो रोगी की हालत पहले से भी खराब हो जाती है।

(ii) इस विधि के प्रयोग के लिए विशेषज्ञों की आवश्यकता होती है तथा इसका प्रयोग सीमित है। हर समय हर परिस्थिति में इसका प्रयोग सम्भव नहीं होता।

(iii) इस विधि में अधिक समय लगता है।

6. व्यक्ति इतिहास विधि (Case History Method)

व्यक्ति इतिहास विधि का प्रयोग व्यक्ति विशेष की किसी खास समस्या का समाधान ढूँतने के लिए किया जाता है। बच्चे विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने आते हैं, उनमें से कुछ यथ्ये ऐसे होते है जो समाज विरोधी या समस्या व्यवहार करते हैं तथा शिक्षण कार्य को सुचारु रूप से चलने नहीं देते। ऐसे बालकों को मनोवैज्ञानिक समस्या बालक’ की संज्ञा देते हैं। उनका मानना है कि बालक परिस्थिति या वातावरण के कारण समस्यात्मक व्यवहार करता है जिसका समाधान किया जा सकता है। ऐसे बालकों की समस्या का स्वरूप व कारण का पता लगाने के लिए उसकी केस हिस्ट्री (Case History) तैयार की जाती है। इसमें व्यक्ति के जन्म, बीमारी, शारीरिक स्थिति, शारीरिक, मानसिक व सांवेगिक विकास, भाषा विकास, रुचियों, आवतों एवं बुद्धि उपलब्धि, व्यवहार, पारिवारिक सम्बन्ध, सामाजिक वातावरण, वंशानुक्रम आदि से सम्बन्धित तथ्य एकत्रित किये जाते हैं। इन तथ्यों का विश्लेषण करके बालकों के मनोविकारों, उसके असामान्य व्यवहार का कारण तथा निदान दूंगा जाता हैं।

गुण

(i) इस विधि का प्रयोग आसान है। इसमें विशेषज्ञ एवं प्रयोगशाला की आवश्यकता नहीं पड़ती। शिक्षक भी सहजता से इसका प्रयोग कर सकते हैं। सभी परिस्थितियों में किसी भी समय प्रयोग सम्भव है।

(ii) व्यक्ति की समस्या का कारण पता लगाकर निदान सम्भव होता है।

(iii) कम खर्चीली विधि है।

दोष

(i) इसे एक वैध एवं वैज्ञानिक विधि नहीं माना जाता क्योंकि व्यक्ति का इतिहास तैयार करते समय प्रायः लोग सही तथ्य/दोष छिपा जाते हैं तथा बनावटी व गलत सूचना देते हैं।

(ii) इस विधि में अधिक समय व श्रम लगता है।

 7.साक्षात्कार विधि (Interview Methal) 

साक्षात्कार विधि शिक्षा मनोविज्ञान की एक अध्ययन विधि है। इस विधि के द्वारा शिक्षा-मनोवैज्ञानिक छात्र की योग्यता, अभिरुचि, अभिक्षमता आदि का परीक्षण करते हैं। इसमें आमने-सामने की परिस्थिति में विषय विशेषज्ञ द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर प्रयोज्य (जिसका साक्षात्कार लिया जाता है) को देना होता है। साक्षात्कार विधि में साक्षात्कारकर्ता विभिन्न प्रकार के प्रश्नों के माध्यम से प्रयोज्य के व्यक्तित्व, उस विषय अथवा व्यवसाय के प्रति उसकी अभिरुचि को जानने का प्रयत्न करता है। इसमें पूछे जाने वाले प्रश्नों का स्वरूप दो प्रकार का हो सकता है-(1) सरचित साक्षात्कार-जिसमें पूछे जाने वाले प्रश्नों को एक निश्चित क्रम में साक्षात्कार के पहले व्यवस्थित कर लिया जाता है तत्पश्चात् बालकों का इन्टरव्यू लिया जाता है तथा दूसरे प्रकार का साक्षात्कार असंरचित साक्षात्कार होता है जिसमें साक्षात्कारकर्ता समय व परिस्थिति के अनुसार प्रश्न पूछता है। इसमें प्रश्नों का स्वरूप पूर्व निर्धारित नहीं होता। इसमें सभी परीक्षार्थियों से अलग-अलग प्रश्न पूछे जाते हैं। दोनों प्रकार के साक्षात्कार में प्रयोज्य से प्राप्त उत्तरों का विश्लेषण करके उसकी अभिवृति, अभिरुचि, रुझान व व्यक्तित्व के शीलगुणों का पता लगाया जाता है।

गुण

(i) यह विधि आमने-सामने की परिस्थिति में क्रियान्वित की जाती है जिसमें बालकों से सीधे प्रश्न पूछे जाते हैं इसमें उनके द्वारा प्राप्त प्रश्नों के उत्तर से निश्चित निष्कर्ष आसानी से निकाला जा सकता है।

(ii) साक्षात्कार विधि में उच्च वैधता एवं विश्वसनीयता का गुण पाया जाता है।

(iii) साक्षात्कार विधि में बालक की भाव-भंगिमा का आकलन करके भी प्रयोज्य के उत्तर की सत्यता का पता लगाया जा सकता है।

दोष

(i) साक्षात्कार विधि का पहला दोष यह माना जाता है कि आमने-सामने प्रश्न पूछे जाने के कारण प्रयोज्य के घबरा जाने की संभावना रहती है जिस कारण वह उत्तर जानते हुए भी सही उत्तर नहीं दे पाता और इस विधि से उत्तर अमनोवैज्ञानिक सिद्ध होते हैं।

(ii) प्रत्येक व्यक्ति का अलग-अलग साक्षात्कार लिये जाने के कारण यह विधि अधिक समय, श्रम व धन खर्च करने वाली विधि मानी जाती है।


8. प्रश्नावली विधि (Questionnaire Method)

शिक्षा मनोविज्ञान के अध्ययन की एक प्रचलित व महत्वपूर्ण विधि है प्रश्नावली विधि। इस विधि में समस्या से सम्बन्धित प्रश्नों की एक लम्बी सूची बनायी जाती है जिसका उत्तर हों या नहीं अथवा सत्य/असत्य में देना होता है। इस प्रश्नावली को सम्बन्धित क्षेत्र के सभी व्यक्तियों को दे दिया जाता है तथा उन्हें यह प्रश्नावली भरकर अर्थात् प्रश्नों के उत्तर के साथ एक निश्चित समय सीमा में लौटानी होती है। तत्पश्चात् शोधकर्ता प्राप्त उत्तरों का विश्लेषण करके बालकों/व्यक्तियों की आदतों/अभिवृत्तियों तथा रुचियों का पता लगाते है।

प्रश्नावली विधि दो प्रकार की होती है

(i) खुली प्रश्नावली (Open Questionnaire)

(i) बन्द प्रश्नावली (Close Questionnaire)

खुली प्रश्नावली में बालकों को ऐसे प्रश्न दिये जाते हैं जिन पर उनको अपने विचार प्रस्तुत करने होते हैं। जैसे (1) कार्य स्थल पर अपनी स्थिति में सुधार हेतु आप क्या सुझाव देना चाहेंगे? (2) छात्र अनुशासन को बनाये रखने हेतु अपने सुझाव दें आदि।

जबकि बन्द प्रश्नावली में प्रश्नों के उत्तर सत्य/असत्य या हौं/नहीं में देने होते हैं। जैसे-(1) क्या कार्य स्थल पर आपके विचारों को महत्त्व दिया जाता है? हाँ/नहीं। (2) क्या आप अपने नियोक्ता की सेवाशर्तों से खुश हैं? हाँ/नहीं।

इस प्रकार प्रयोज्य को प्रश्नावली के प्रश्नों का उत्तर देना होता है जिसके आधार पर उसके व्यक्तित्व के शीलगुण, रुचि, योग्यता, कार्य एवं व्यवसाय के प्रति मनोवृत्ति आदि का पता लगाया जाता है। दोनों ही प्रकार की प्रश्नावली इस प्रकार के प्रश्नों द्वारा बालक का अध्ययन करने में शिक्षामनोविज्ञान की सहायता करती हैं।

गुण

(i) इस विधि द्वारा एक ही समय में अधिक से अधिक लोगों के व्यक्तित्व का अध्ययन किया जा सकता है।

(ii) साक्षात्कार विधि की तुलना में यह विधि मितव्ययी तथा कम श्रम साध्य होती है।

(iii) इस विधि का उपयोग सरलता से शिक्षकों द्वारा भी किया जा सकता है।

दोष

(i) इस विधि का सबसे बड़ा दोष है कि इसमें प्रश्नों के उत्तर जल्दी प्राप्त नहीं किये जा सकते अतः इसके द्वारा निष्कर्ष निकालने में काफी समय लगता हैं। कई बार एक ही व्यक्ति को कई-कई प्रश्नावली देनी पड़ती है।

(ii) प्रश्नावली विधि द्वारा प्राप्त उत्तर में झूठे व मनगढंत उत्तर के मिलने की अधिक सम्भावना रहती है। बालक प्रायः सही बात छिपाकर गलत उत्तर देता है।

कक्षा स्थितियों में शिक्षक के निहितार्थ (Implications of Teacher in Classroom Situations)

कक्षा स्थितियों में शिक्षक के निहितार्थ निम्नलिखित हैं

1. बालकों की समस्याओं का ज्ञान (Knowledge of Child’s Problems)बालकों की आवश्यकताओं एवं समस्याओं से सम्बन्धित उपयोगी जानकारी शिक्षकों के लिए अति आवश्यक है जो मनोविज्ञान के अध्ययन द्वारा ही प्राप्त होती है।

2. सीखने के उद्देश्यों का निर्धारण (Framing of Objectives of Learning)शिक्षक की प्रथम अवस्था शिक्षण के उद्देश्यों का निर्धारण है। यही शिक्षण उद्देश्य को निश्चित दिशा प्रदान करने के साथ शिक्षण एवं मूल्यांकन विधियों के निर्धारण में सहायता प्रदान करते हैं। शिक्षाविदों ने उद्देश्यों को दीर्घकालीन, अल्पकालीन य व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों से सम्बन्धित किया है। शिक्षा मनोविज्ञान के ज्ञान के आधार पर ही, एक शिक्षक उद्देश्यों का निर्धारण सुचारू रूप से करता है।

3. स्वयं का ज्ञान (Knowledge of Self)-शिक्षक को स्वयं का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है। शिक्षा मनोविज्ञान अध्यापक की योग्यता, क्षमता, प्रतिभा, व्यक्तित्व, गुण आदि का ज्ञान कराता है तथा स्वयं के ज्ञान के द्वारा कार्य की प्रेरणा प्रदान करता है। शिक्षा मनोविज्ञान के जरिये शिक्षक को अपनी अभिवृत्ति, विश्वास, प्रवीणता एवं योग्यताओं के विश्लेषण में मदद मिलती है, जिसके आधार पर अपनी अभिवृत्तियों, मूल्यों और मान्यताओं में तथा व्यक्तिगत विभिन्नताओं में संशोधन कर सकता है।

4. अधिगम (Leaming)-शिक्षा मनोविज्ञान द्वारा एक अध्यापक कक्षा शिक्षण से सम्बन्धित अधिगम की प्रकृति, स्थितियों, परिणामों तथा मूल्यांकन से सम्बन्धित तथ्यों की जानकारी प्राप्त करता है। अधिगम के विभिन्न सिद्धान्तों को जानकर विद्यार्थियों की अधिगम आवश्यकताओं, अनुदेशनीय स्रोतों को ध्यान रखते हुये चयनित करता है। अनुदेशनीय सामग्री का चयन भी विद्यार्थियों की वैयक्तिक विभिन्नताओं के आधार पर ही सम्भव है। इस सन्दर्भ में शिक्षा मनोविज्ञान सहायता करता है। यह अध्यापक के लिये वातावरण का निर्माण करता है अर्थात् विद्यार्थियों की आवेगात्मक प्रक्रियाएँ, प्रत्यक्ष अन्तःक्रिया व अभिवृत्तियाँ आवि स्वतः आ जाती हैं।

5. विविध शिक्षा प्रणालियाँ (Different Teaching Methods)-सम्प्रेषण व विषय का पूर्ण ज्ञाता होने के बावजूद एक अच्छा अध्यापक होना आवश्यक नहीं है, क्योंकि अच्छा अध्यापक होने के लिये इसके साथ मनोविज्ञान के सिद्धान्तों की जानकारी एवं इनकी प्रयुक्तता आना आवश्यक है। जब तक अध्यापक बालक के मनोविज्ञान के अनुसार अध्ययन की प्रक्रिया का संचालन नहीं करता, अधिगम नहीं होगा। 19वीं शताब्दी से विभिन्न शिक्षण प्रणालियों का उद्गम विभिन्न मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के आधार पर हुआ। फ्रोबेल के किण्डरगार्टन पद्धति, माण्टेसरी पद्धति, झाल्टन योजना, यूरिस्ट पद्धति एवं बेसिक शिक्षा प्रणाली आदि की जानकारी शिक्षा मनोविज्ञान द्वारा अध्यापक को मिलती है। शिक्षा प्रणाली के अध्ययन से शिक्षा के बारे में एक नया दृष्टिकोण विकसित होता है। यही कारण है कि आज सहयोगी क्रियाओं पर बल दिया जाता है व इन्हें अतिरिक्त शैक्षणिक क्रियाओं की संज्ञा न देकर सह-शैक्षणिक क्रियायें कहा जाता है।

विभिन्न मनोवैज्ञानिकों का शिक्षा में योगदान (Various Psychologists and Their Contribution in Education)

शिक्षा मनोविज्ञान का इतिहास सन् 1880 में सर फ्रान्सिस गाल्टन (1822-1911) द्वारा किए गए अभूतपूर्व योगदानों से आरम्भ होता है। गाल्टन ने व्यक्तिगत विभिन्नता पर अधिक बाल डाला जिसका परिणाम यह हुआ कि व्यक्ति की मानसिक क्षमता के मापन की ओर लोगों का ध्यान गया । गाल्टन ही वह पहले मनोवैज्ञानिक थे जिन्होंने व्यक्ति का मानसिक क्षमता परीक्षण’ बनाया । गाल्टन का यह भी विचार था कि व्यक्तियों की बुद्धि की माप उसकी संवेदी क्षमताओं के आधार पर किया जाना चाहिए। इसके बाद जी. स्टेनले हॉल (1844-1924) ने प्रश्नावली के सहारे बच्चों के शैक्षिक व्यवहारों का अध्ययन कर लोगों का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया। इस दिशा में इंबिगहास (1850-1909) तथा विलियम जेम्स (1842-1910) द्वारा पहले कुछ इस प्रकार के अध्ययन किए जा चुके थे जिससे शिक्षा मनोविज्ञान को अनेक नए सिद्धान्तों और तथ्यों की प्राप्ति हो चुकी थी। 20वीं सदी के प्रारम्भ में शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र में अल्फ्रेड बिने द्वारा एक महत्वपूर्ण योगदान दिया गया। इन्होंने बालकों की बुद्धि मापने के लिए सबसे पहला बुद्धि परीक्षण निर्मित किया, जो विने-साइमन मापनी (Binct-Simon Scale) के नाम से प्रकाशित हुआ । जेम्स मैक्कीन कैटेल (1860-1944) ने वैयक्तिक विभिन्नता तथा मानसिक परीक्षणों के क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रयोग करके शिक्षा मनोविज्ञान के स्वरूप को प्रयोगात्मक बनाया। बाद में कैटेल के शिष्य ई. एल. थार्नडाइक (1874-1949) द्वारा उनके कार्यों को आगे बढ़ाया गया और शिक्षा के क्षेत्र में एक कदम आगे बढ़कर योगदान विया । थार्नडाइक ने सीखने का एक सिद्धान्त विकसित किया तथा सीखने के नियमों का भी प्रतिपादन किया। इन नियमों में प्रभाव के नियम द्वारा शिक्षा की समस्याओं को सुलझाने में काफी मदद मिली। थार्नडाइक ने 1933 में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक शिक्षा मनोविज्ञान’ का प्रकाशन किया जिसमें उन्होंने हस्तान्तरण के एक नए सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जिसे समरूप तत्वों का सिद्धान्त कहा गया। इसके अनुसार एक परिस्थिति से दूसरी परिस्थिति में हस्तान्तरण या मदद की मात्रा इस बात पर निर्भर करती है कि इन दोनों परिस्थितियों में समान या समरूप तत्व कितने हैं। ऐसे तत्वों की संख्या जितनी अधिक होगी, : धनात्मक हस्तान्तरण की मात्रा उतनी ही अधिक होगी। इस सिद्धान्त का प्रतिपादन औपचारिक अनुशासन के सिद्धान्त’ को अस्वीकृत करने के बाद किया था। सन् 1922 में थार्नडाइक ने अंकगणित की शिक्षा देने के लिए सात प्रमुख नियमों का प्रतिपादन किया जिसे शिक्षा मनोविज्ञान के लिए अभूतपूर्व योगदान माना गया। उन्होंने इस बात से इनकार किया कि बुद्धि में कोई मानसिक क्षमता जैसी चीज होती है। शायद यही कारण है कि उन्होंने बिने द्वारा प्रतिपादित बुद्धि परीक्षण का विरोध किया और उसकी जगह उन्होंने अपना एक नया बुद्धि परीक्षण बनाया जिसे CAVD परीक्षण कहा गया । 

इसबुद्धि परीक्षण में चार उप-परीक्षण थे

(i) पूर्ति (Completion)

(ii) अंकगणितीय चिंतन (Arithmetic Reasoning)

(ii) शब्दावली (Vocabulary)

(iv) दिशा (Direction) |

वास्तव में थार्नडाइक के महत्वपूर्ण योगदानों से शिक्षा मनोविज्ञान का वैज्ञानिक काल प्रारम्भ होता है। सन् 1950 के बाद शिक्षा मनोविज्ञान में तीन विकास हुआ है। आजकल शिक्षा मनोवैज्ञानिक सिर्फ सीखने और सिखाने के क्षेत्रों में ही कार्य नहीं कर रहे हैं, वे अन्य सम्बन्धित प्रमुख क्षेत्रों में भी कार्यरत हैं, जैसे-मानसिक स्वास्थ्य (Mental Health), सामाजिक कुसमायोजन (SocialMaladjustment), शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन (Educational and Vocational Guidance) तथा मापन एवं मूल्यांकन (Measurement and Evaluation) आदि। इन नए-नए क्षेत्रों में भारतीय मनोवैज्ञानिकों द्वारा भी महत्वपूर्ण योगदान दिए जा रहे हैं जो आगे आने वाले दशकों में इतिहास का महत्वपूर्ण भाग बनेंगे। 

||Educational Psychology In Hindi For HPTET ||Educational Psychology In Hindi For HPTGT||

शिक्षण-अधिगम में मनोविज्ञान का महत्व (Importance of Psychology in Teaching Learning)

शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया में मनोविज्ञान का महत्त्व निम्नलिखित है

1. अधिगमकर्ता (Learner)

अधिगमकर्ता से तात्पर्य है सीखने वाला जो हर परिस्थिति से कुछ-न-कुछ सीखता है। शिक्षा मनोविज्ञान के अन्तर्गत सीखने के सिद्धान्तों, नियों, विधियों तथा प्रक्रियाओं का अध्ययन करता है। सीखने की प्रक्रिया का अर्थ उस प्रक्रिया से है जिसमें अधिगमकर्ता या सीखने वाला अपने व्यवहार में परिवर्तन लाता है। नई सूचनाओं को ग्रहण करता है। विश्लेषण एवं संश्लेषण की कुशलता प्राप्त करता है और नवीन मूल्यों, अभिवृत्तियों, दक्षताओं तथा मूल्यांकन की योग्यता प्राप्त कर लेता है। व्यापक अर्थो में मनुष्य जन्म से मृत्यु तक सीखता रहता है तथा उसके अनुसार अपने अनुभव और व्यवहार में परिमार्जन करता रहता है।

अधिगमकर्ता की अवस्थाओं के स्तर निम्नलिखित हैं

1. शैशवावस्था

2. बाल्यावस्था

3. किशोरावस्था

इन स्तरों का विश्लेषण अगले अध्याय में किया गया है।

2. शिक्षक(Teacher)

शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षक का सीधा सम्बन्ध शिक्षार्थी से होता है। शिक्षक और शिक्षार्थी के बीच अन्त क्रिया होती है। शिक्षक ही छात्रों को प्रगति का मार्ग दिखाता है और समय-समय पर शिक्षार्थियों का मार्गदर्शन करता है। उसके इस कार्य में शिक्षा मनोविज्ञान विशेष सहायता प्रदान करता है। बालक में प्रेम, आत्मसम्मान तथा स्वीकार किए जाने की भी आवश्यकताएँ होती हैं। शिक्षा-मनोविज्ञान इन आवश्यकताओं से शिक्षकों को परिचित कराता है। स्किनर का कहना है, ‘अध्यापक शिक्षा मनोविज्ञान से प्रत्येक छात्र की अनोखी आवश्यकताओं के विषय में बहुत कुछ सीख सकता है।’ शिक्षा मनोविज्ञान के ज्ञान से शिक्षक को बाल विकास की विभिन्न अवस्थाओं की विशेषताओं का ज्ञान हो जाता है। वह प्रत्येक अवस्था में बालकों की शारीरिक, मानसिक विशेषताओं से परिचित होकर उनके लिए पाठ्यविषयों तथा क्रियाओं का चयन कर सकता है। शिक्षा मनोविज्ञान के अध्ययन से सीखने तथा सिखाने का कार्य उचित ढंग से होता है। अध्यापकों को आधुनिक मनोवैज्ञानिक विधियों-स्वानुभव द्वारा सीखना (Learning bhy self-experience), क्रिया विधि, खेल विधि, निरीक्षण विधि, खोजपूर्ण विधि (Learning by discovery), प्रयोगशाला विधि (Laboratory method) आदि के ज्ञान द्वारा अपनी कार्य क्षमता में वृद्धि करने में सहायता मिलती है। इसके अतिरिक्त ऐसी पद्धतियों तथा प्रविधियों से परिचय प्राप्त करता है जिसकी सहायता से सीखने की प्रक्रिया में सुधार किया जा सकता है।

रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार, “एक शिक्षक वास्तव में तभी शिक्षण कर सकता है जब वह स्वयं अध्ययनशील रहता हो । एक जलता हुआ दीपक ही दूसरे दीपक को प्रज्वलित कर सकता है। यदि एक शिक्षक ने अपने विषय अध्ययन को समाप्त कर दिया और अपने ज्ञान का आदान-प्रदान भी नहीं करता तब वह अपने छात्रों में जागृति नहीं ला सकता है। वह छात्रों के मस्तिष्क को बोझिल करता है।”

ओकशोट ने शिक्षक की चार क्रियाओं का उल्लेख किया है जो शिक्षाक सामान्य रूप से करता है

1. अपने छात्रों को सूचनाओं का सम्प्रेषण करना

2. विषय सम्बन्धी सूचनाओं का सम्प्रेषण करना

3. सूचनाओं का ज्ञान होना

4. विशिष्ट पाठ्यवस्तु के लिए अनुदेशनात्मक प्रक्रिया का उपयोग करना

आई. के. डेवीज ने शिक्षण प्रत्यय को चार सोपानों में व्यक्त किया है तथा शिक्षक को एक प्रबन्धक की संज्ञा दी है। शिक्षण चार सोपानों वाली एक क्रिया है। ये चार सोपान हैं-नियोजन,व्यवस्था, अनुसरण तथा नियंत्रण ।

फ्लैण्डर्स के अनुसार शिक्षण एक सामाजिक क्रिया है, जो शिक्षक व छात्रों के मध्य अन्तक्रिया से सम्पन्न होती है। बिडाल के अनुसार, “शिक्षक की एक या अधिक योग्यताएँ जो वांछित शैक्षिक प्रभावों को उत्पन्न करती हैं, शिक्षक की क्षमता कहलाती है।”

(i) ज्ञानात्मक विशेषताएँ

1. उच्च शैक्षिक निष्पत्ति वाला होना

2 शिक्षक का अपने छात्रों के सम्बन्ध में परिचित होना या छात्रों को जानना

3. विषय का ज्ञान

4. विषय वस्तु की अच्छी तैयारी

5. विषय वस्तु का प्रभावशाली प्रस्तुतीकरण ऑलिय तथा हेमटन विषय के ज्ञान के साथ शिक्षक की सीखने की प्रक्रिया, आधारभूत सिद्धान्तों, शिक्षण प्रविधियों आदि का पर्याप्त ज्ञान तथा कक्षा को अनुशासित रखने में कुशलता को भी अनिवार्य मानते हैं।

(ii) भावनात्मक विशेषताएँ-इसके अन्तर्गत शिक्षक के संवेग, रुचियाँ, अभिवृत्ति, मूल्य तथा व्यक्तित्व सम्बन्धी विशेषताएँ आती हैं। एण्डरसन के अनुसार प्रभुत्ववादी शिक्षक कक्षा पर अच्छा व वांछित प्रभाव उत्पन्न करने वाले होते है। समन्वयी शिक्षक से पढ़ने वाले छात्र भी समन्वयी मनोवृत्ति वाले हो जाते हैं तथा उनमें अधिक स्वाभाविकता व अच्छ संवेगात्मक व सामाजिक समायोजन पाया जाता है। शिक्षक के व्यक्तित्व के साथ छात्र की निष्पत्ति का गहरा सम्बन्ध होता है। रेयन्स के अनुसार उत्साही, व्यवस्थित तथा प्रेरणा देने वाले शिक्षक ही अधिक प्रभावशाली शिक्षक होते हैं।

(iii) गतिशील व कौशल सम्बन्धी विशेषताएँ- शिक्षक छात्रों के समक्ष एक आदर्श प्रतिमान होता है जिसका छात्र अनुकरण करते हैं। अतः शिक्षक में पूर्ण कौशल नितान्त आवश्यक है।

3. शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया (Teaching-Learning Process)

ई. सी. मूअर के अनुसार, “शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में एक जीव द्वारा दूसरे जीव को ज्ञान अंतरित किया जाता है। मूअर ने मनोविज्ञान के योगदान की प्रशंसा की है जिसके कारण शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया और अधिक जीवंत, कार्यशील, सहयोगी तथा वैज्ञानिक हो गयी है।

शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को पाँच महत्वपूर्ण पदों में समझाया जा सकता

(i) उद्देश्य (Objectives)

(ii) तैयारी (Preparation)

(iii) सचार (Transmission)

(iv) प्राप्ति (Reception)

(v) आत्मसातन (Assimilation)

शिक्षण-अधिगम की सफलता इन पाँच स्तरों की प्रभावशीलता पर निर्भर करती है। अध्यापकों को चाहिए कि वे इन स्तरों पर अधिकार प्राप्त करें।

(1) उद्देश्य कक्षा में जाने से पहले अध्यापक स्वयं से प्रश्न पूछता है—मैं क्या करने जा रहा हूँ ? क्यों करने जा रहा हूँ ? मेरे अध्यापन के क्या उद्देश्य हैं ? मैं क्यों अध्यापन कर रहा हूँ? मेरे छात्रों को इसका क्या लाभ होगा? इस प्रकार, कोई भी अच्छा अध्यापक अपने अध्यापन के उद्देश्य निश्चित कर लेता है।

(ii) तैयारी–इस स्तर में अध्यापन तीन चीजों से सम्बन्ध रखता है

1. क्या पढ़ाना है?

2. कितना पढ़ाना है?

3. किस प्रकार पदाना है?

तैयारी करते समय अध्यापक को उस विषय वस्तु पर अधिकार प्राप्त करने का प्रयल करना चाहिए जिसे वह छात्रों को देने जा रहा है तथा उसमें अपनी प्रवीणता को दर्शाना चाहिए। वह उन सभी चीजों आदि की व्यवस्था कर लेता है जिनकी उसे कक्षा में आवश्यकता होगी। इसके बाद निम्न निर्णय लेता है

1. मुझे क्या अवश्य ही पढ़ाना है ?

2. मुझे क्या पदाना चाहिए ?

3. मैं क्या पढ़ा सकता हूँ?

कितना पढ़ाना है—अध्यापक सीखने वालों का स्तर, ज्ञान, आवश्यकतातथा उपलब्ध समय का मूल्यांकन करने का प्रयास करता है तथा उसकेअनुसार अपने अध्यापन को व्यवस्थित करने का प्रयत्न करता है। तबवह यह निर्णय लेता है कि उसे अपने छात्रों के भूत तथा वर्तमानअनुभवों के आधार पर कितना पढ़ाना है।

किस प्रकार पढ़ाना है -कोई भी अच्छा अध्यापक शिक्षण विधियों,तरीकों तथा योजनाओं के बारे में सोचता है तथा तब यह निर्णय लेता हैकि प्रभावशाली शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया के लिए उसे किस प्रकार पढ़ाना चाहिए। वह अध्यापन के विभिन्न सिद्धान्तों के बारे में विचार करता है तथा उनमें से किसी को उचित समझकर अपने लिए चुनता है। उदाहरण केलिए

1. ज्ञात से अज्ञात की ओर

2. स्थूल से सूक्ष्म की ओर

3. साधारण से जटिल की ओर

वह सभी अध्यापन बिन्दुओं को क्रमवार लगाता है तथा महत्वपूर्ण बिन्दुओं को या तो आरम्भ में लगता है या उन्हें अंत में व्यवस्थित करता है।

वह उन सभी प्रश्नों पर विचार कर लेता है जो छात्र उससे अध्यापन के दौरान पूछ सकते हैं। जब उसकी हर प्रकार से तैयारी पूर्ण हो जाती है, तो शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया के अगले स्तर के लिए तैयार हो जाता है।

(iii) संचार—एक सफल अध्यापक के पास निम्न चीजें होती हैं

1. उद्देश्य

2. व्यक्तिगत अनुभव

3. उत्साह तथा विनोदशीलता

4. बुद्धिमानी जो व्यंग्यपूर्णयता हो

5. अनेक प्रकार की विधियों को प्रयोग करने क्षमता

6. प्रसन्नतादायक व्यवहार

7. कक्षा के प्रति दृढ़, मित्रतापूर्वक तथा न्यायशील व्यवहार

8. उसे वही ज्ञान देना चाहिए जो उसे ज्ञात है।

अध्यापक विषयवस्तु के साथ-साथ अपनी शिक्षण विधियों तथा योजनाओं पर भी अधिकार प्रकट करता है। उसे याद रखना चाहिए कि सीखने वाला कैसे’ को ‘क्या’ से अधिक लम्बे समय तक याद रखता है।

(iv) प्राप्ति—किसी सीखने वाले के लिए प्राप्ति बहुत ही महत्वपूर्ण है। यदि कोई सीखने वाला सीखने को तैयार है तो वह और अधिक चीजें सीख पाता है। इसलिए किसी भी सीखने वाले को अभिप्रेरित होना चाहिए।

अभिप्रेरणा के स्रोत

1. सीखने वालों में रुचि, इच्छा तथा जिज्ञासा को जगाना चाहिए ।

2. सीखने वालों में विषय के महत्व के बारे में समझ पैदा करनी चाहिए।

3. ईनाम तथा अन्य विधियों का प्रयोग उचित प्रकार से करना चाहिए।

4. सीखने वालों में प्रतियोगिता की भावना का विकास तथा उसका प्रयोग करना चाहिए।

5. उपलब्धि तथा प्रगति के विचार को सीखने वालों में बझवा देना चाहिए।

सीखने वालों में अभिप्रेरणा के स्तर को ऊँचा करने के लिए अध्यापक को अपने अध्यापन को रुचिपूर्ण, आनंददायक तथा शैक्षिय बनाना चाहिए।

(v) आत्मसातन छात्रों में जिस भी ज्ञान का संचार किया गया है तथा जिसकी उन्हें प्राप्ति हुई है, अध्यापक को चाहिए कि वे उस ज्ञान को आत्मसात कर पायें। आत्मसात के लिए निम्न बिन्दु बहुत ही महत्वपूर्ण

1. कारण की समझ-क्यों ?

2. प्रश्नोत्तर-क्यों ?

3. याद करना।

4. विभिन्न गतिविधियों द्वारा आत्मसातन का प्रमाण।

4. विद्यालय प्रभावशीलता (School Effectiveness)

वह विद्यालय जो सभी के लिए सीखना लक्ष्य के साथ सभी को समान रूप से गुणवत्तापूर्ण ज्ञान प्रदान करे, प्रभावशाली विद्यालय कहलाता है। मुदालियर आयोग के अनुसार, “भारत में विद्यालयों को ऐसा सौन्दर्य प्रदान किया जाना चाहिए जहाँ छात्रों को प्रेरणादायक पर्यावरण उपलब्ध हो सके।”

कोठारी आयोग के अनुसार, “विद्यालय भवन ऐसा सम्पूर्ण परिवेश एवं सहज पर्यावरण प्रदान करने की सुविधाओं से युक्त हो जहाँ छात्र की मुस्कान एवं उछलकूद को बनाए रखा जा सके। विद्यालय छात्र के बहुआयामी व्यक्तित्व को बनाए रखने का साधन सिद्ध होना चाहिए।’

जॉन ड्यूवी के अनुसार, “विद्यालय एक ऐसा विशिष्ट वातावरण है जहाँ बालक के वांछित विकास की दृष्टि से उसे विशिष्ट क्रियाओं तथा व्यवसायों की शिक्षा दी जाती है।”

जे. रॉस के अनुसार, “विद्यालय ये संस्थाएँ हैं जिनको सभ्य मानव ने इस दृष्टि से स्थापित किया है कि समाज में सुव्यवस्थित तथा योग्य सदस्यता के लिए बालकों की तैयारी में सहायता मिले।”

विशेषताएँ

1. विद्यालय एक विशिष्ट वातावरण है जिसमें बालकों के वांछित विकास के लिये विशिष्ट गुणों, क्रियाओं तथा व्यवसायों की व्यवस्था की जाती है।

2. विद्यालय यह स्थान है जहाँ संसार की महान् एवं महत्वपूर्ण क्रियाओं को स्थान दिया जाता है।

3. विद्यालय को बालकों के भावी जीवन की तैयारी के हेतु स्थापित किया जाता है।

4. विद्यालय को सामुदायिक जीवन का केन्द्रबिन्दु होना चाहिये।

एक प्रभावशाली विद्यालय की प्रमुख विशेषताएँ (Main Characteristics of Effective School)

1. एक प्रभावशाली विद्यालय का वातावरण किसी भी तरह के भौतिक खतरों से बाहर होता है।

2. विद्यालय का वातावरण कानून सम्मत, उद्देश्यपूर्ण तथा व्यवसाय पूर्ण हो।

3. एक प्रभावशाली विद्यालय का एक स्पष्ट एवं केन्द्रित उद्देश्य होता है जिसके इर्द-गिर्द विद्यालय स्टाफ काम करता है।

4. एक प्रभावशाली विद्यालय अपने लक्ष्य, प्राथमिकताएँ तय करता है, स्टाफ एक निश्चित स्थाई आदेश की अनुपालना करता है। स्टाफ छात्रों की पाठ्यक्रम सम्बन्धित जिम्मेदारी लेता है।

5. प्रभावशाली विद्यालय में स्टाफ यह विश्वास करता है कि सभी छात्र विद्यालय कौशल में निपुण होते हैं तथा वे समय-समय पर एक-दूसरे की मदद कर सकते हैं।

6. एक प्रभावशाली विद्यालय में छात्र अधिकतम करके सीखते हैं तथा अध्यापक उनको निर्देशित करते देखे जा सकते हैं।

 7. एक प्रभावशाली विद्यालय में नियमित रूप से अकादमिक उन्नति का निश्चित तरीके से आकलन किया जाता है।

8. एक प्रभावशाली विद्यालय की खास खूबी यह होती है कि अभिभावक एवं विद्यालय के मध्य सकारात्मक माहौल होता है। अभिभावक विद्यालय के उत्थान के लिए हमेशा तैयार रहते हैं।

9. एक प्रभावशाली विद्यालय में प्रिंसिपल एक सफल नेतृत्वकर्ता के रूप में काम करता है। वह स्टाफ, छात्रों तथा अभिभावकों को बेहतर तरीके से विद्यालय के उद्देश्य के बारे में समझाता है।

10. एक प्रभावशाली विद्यालय छात्रों के सर्वांगीण विकास के लिए सहशैक्षिक गतिविधियों पर भी समान जोर देता है।

11. एक प्रभावशाली विद्यालय छात्रों के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं नागरिक गुणों का विकास करता है।

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