Kullu Dussehra:-Why is Kullu Dussehra celebrated? & History Of Kullu Dussehra
कुल्लू दशहरा :
- कुल्लू के दशहरा उत्सव की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि भगवान रामचंद्रजी के अयोध्या से कुल्लू आने पर आधारित है।
- कुल्लू में दशहरा का शुभारंभ 17वीं शताब्दी में हुआ।
- कुल्लू नरेश ‘जगत सिंह’ (1637-1672 ईस्वी) से एक बार किसी ने झूठी शिकायत कर दी कि मणिकर्ण के समीप टिपरी गांव में एक ब्राह्मण, जिसका नाम ‘दुर्गादत्त’ था, के पास डेढ़ किलो शुद्ध मोती हैं। राजा ने उसे मोती सौंपने के लिए कहा।
- ब्राह्मण को लगा कि राजा द्वारा उसे व उसके परिवार को मोती ना सौंपने के लिए प्रताड़ित किया जाएगा। राजा से भयभीत होकर गरीब ब्राह्मण ने परिवार सहित अपने घर को आग लगाकर आत्महत्या कर ली। ब्राह्मण दुर्गादत्त द्वारा आत्महत्या के अभिशाप के कारण राजा जगत सिंह को खाने में कीड़े तथा पानी में खून दिखाई देने लगा तथा राजा की कनिष्ठिका में कुष्ट रोग’के लक्षण उभर आए। इस पर राजा पश्चाताप करने लगा।
- सच्च में-विद्वान पंडित दुर्गादत्ता के पास मोती थे ही नहीं।
- राजा ने अपने कष्ट निवारण के लिए अनेक प्रार्थनाएं कीं। उन दिनों नगर के समीप बाबा कृष्ण पयहारी रहते थे। उन्होंने सुझाव दिया कि यदि अयोध्या के त्रेतानाथ मंदिर से उस प्रतिमा को लाए, जो भगवान राम ने अपने जीवन काल में स्वयं बनाई है, और उसको प्रतिष्ठा अपनी राजधानी में करें, तो उसका चर्णामृत पीने से राजा कुष्ट मुक्त हो सकता है।
- इस कार्य के लिए दामोदर दास को बुलाया गया। दामोदर दास गटका सिद्धि का ज्ञाता था। अतः वह अयोध्या पहुंच गया तथा वहां पुजारियों के साथ घुलमिल कर रहने लगा तथा एक दिन उसने रघुनाथ जी द्वारा बनाई मूर्तियों को चुरा लिया और कुल्लू के लिए प्रस्थान कर गया। लेकिन पता लगने पर पुजारियों ने उसका पीछा किया और वह रास्ते में पकड़ा गया। जब दामोदर दास को मूर्ति की चोरी के लिए प्रताड़ित किया गया, तो उसने वास्तविकता से पुजारियों को अवगत करवाया, लेकिन पुजारियों ने मूर्ति को ले जाने से मना कर दिया।
- जब पुजारी मूर्ति को अयोध्या ले जाने लगा, तो उसकी आंखों के आगे अंधेरा छने लगा। जब वह कुल्लू की ओर जाने लगा उसकी दृष्टि स्पष्ट होने लगी। पुजारी ने इस घटनाक्रम को प्रभु की इच्छा समझा और उसने मूर्ति दामोदर दास को सौंप दी।
- प्रतिमा को लेकर दामोदर दास वर्ष 1651 में मकड़ाहर पहुंचा, उसके बाद 1653 में मणिकर्ण मंदिर में रखने के बाद सन् 1660 में कुल्लू के रघुनाथ मंदिर में विधि विधान से मूर्तियों को स्थापित किया गया |
- उसके पश्चात राजा राजपाट श्री रघुनाथ जी को सौंप कर स्वयं प्रतिनिधि सेवक के रूप में कार्य करने लगा तथा राजा रोग मुक्त भी हो गया।
- रघुनाथ जी के सम्मान में ही राजा जगत सिंह द्वारा वर्ष 1660 में दशहरे की परंपरा आरंभ हुई तथा कुल्लू में 365 देवी-देवता भी रघुनाथ जी को इष्ट मानकर दशहरा उत्सव में शामिल होने लगे।
- पूरे राज्य की भागीदारी में दशहरा उत्सव को ढालपुर मैदान में मनाया जाने लगा, जिस दिन भारत भर में आश्विन शुक्ल पक्ष दशमी तिथि को दशहरा का समापन होता है उस दिन कुल्लू का दशहरा आरंभ होता है।
- कुल्लू दशहरा के लिए राजा जगत सिंह ने देवताओं को बुलानें के लिए न्योता (निमंत्रण) देने की परंपरा शुरू की जो आज भी चली आ रही है। बिना न्योते के देवता अपने मूल स्थान से कदम नहीं उठाते।
- न््योते पर करीब 200 किलोमीटर तक चैदल यात्रा कर नदियों, जंगलों,.पहाड़ों से होते हुए अठारह करडू की सोह ढालपुर पहुंचते हैं।
- वर्ष 1660 में तत्कालीन राजा जगत सिंह की ओर शुरू किया कुल्लू दशहरा कई परंपराओं और मान्यताओं को समेटे हुए है। पहले राजवंश और अब जिला प्रशासन हर बार घाटी के लगभग 300 देवी-देवताओं को दशहरे का न्योता देता आ रहा है।
- वर्ष 2019 में रिकॉर्ड 331 निमंत्रण दिए गए। इसमें 26 नए देवता भी शामिल थे।
- दशहरे से दो सप्ताह पहले खराहल, ऊपझी, बंजार, सैंज घाटी के देवता प्रस्थान करना शुरू कर देते हैं। देवता सदियों पुराने अपने रास्तों से आते हैं। उनके विश्राम करने , रुकने, पानी पीने तक के स्थान तय हैं। धूप, बारिश हर मौसम में उनका आगमन नहीं रुकता। देवताओं के कारकूत व देवलु दशहरा के सात दिनों तक अस्थायी शिविरों में तपस्वियों की तरह रहते हैं। कारकून देव नियमों से बंधे होते हैं। न बाहर जा सकते हैं और न दूसरों का बना खाना खा सकते हैं।
- दशहरे के प्रथम दिन भगवान रघुनाथ जी की भव्य शोभा यात्रा निकाली जाती है , जिसमें देवी हडिंबा सहित सैकड़ों देवी-देवता भाग लेते हैं। उत्सव का पहला दिन ठाकुर निकलने के नाम से जाना जाता है।छठे दिन को ‘मुहक्का’ कहते हैं।
- दशहरे के अंतिम दिन भगवान रघुनाथ जी का रथ खिंच कर मैदान के अंतिम छोर तक लाया जाता है तथा व्यास नदी के किनारे तैयार की गई लंका में रावण, कुंभकर्ण तथा मेघनाथ के पुतले जलाए जाते हैं और पांच बलियां दी जाती हैं।
- हिमाचल प्रदेश में सम्मिलित होने के बाद, कुल्लू का पहला दशहरा अक्टूबर, 1967 में हुआ था। उस समय प्रदेश के विभिन्न जिलों से सांस्कृतिक दल आमंत्रित करके इस उत्सव को ‘राज्य स्तरीय दर्जा‘ दिया गया
- वर्ष 1973 में रोमानियां के सांस्कृतिक दल ने दशहरे में भाग लिया और इसी के साथ ही दशहरे का “अंतर्राष्ट्रीय लोक नृत्य समारोह’ के रूप में आयोजन आरंभ हुआ।
- कुल्लू दशहरे को अन्तर्राष्ट्रीय पर्व का दर्जा प्राप्त है।
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